SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनसहस्रनाम टीका - ४ उस धर्म से शोभित हैं अतः पुरन्दर ने, इन्द्र ने आदि प्रभु को नाम से प्रसिद्ध किया । शंभवः = 'शं सुखं भवति यस्मादिति शम्भव:' जिससे सुख की प्राप्ति होती है उसे शम्भव कहते हैं और आदि प्रभु ने भव्यों को सुखप्राप्ति के लिए गृहस्थधर्म तथा मुनिधर्म का उपदेश दिया था अतः उनका शम्भवनाम सार्थक है । वृषभ स्वामी - - - - 'सम्भव' ऐसा भी पाठ है सं समीचीन उत्तम निर्दोष भव यानी जन्म जिसका है, ऐसे प्रभु को संभव कहना भी योग्य है। सं समीचीन भाव अरुद्रभाव - क्रूरतारहित शान्तमूर्ति जिसकी है ऐसा भव है जिसका उसको संभव कहते हैं। - 33 = परमानन्द शम्भुः = "शं परमानंदलक्षणं सुखं भवत्यस्मात् शंभु : ' जिसका लक्षण है ऐसे सुख की जिससे भक्तों को प्राप्ति होती है उसे शंभु कहते हैं । - आत्मभूः = आत्मना भवतीति आत्मभूः । आत्मा शुद्धबुद्धैक-स्वभावश्चिच्चमत्कारैकलक्षणः परमब्रह्मैकस्वरूपष्टोत्कीर्ण - स्फटिक मणिमतल्लिका बिम्ब सदृशी भूर्निवासस्थानं यस्य स आत्मभूः । आत्मा अपने शुद्ध ज्ञानरूप एकस्वभाव को धारण करने वाला है तथा चैतन्य चमत्कार ही उसका एक लक्षण है, परमब्रह्म एकस्वरूपमय है, टाँकी से उकेरे गये स्फटिकमणि में पदार्थ प्रतिबिम्ब जैसा निर्मल दीखता है वैसा निर्मल ज्ञानमय आत्मा जिसका निवासस्थान है, उसे आत्मभू कहते हैं। आत्मा सचक्षुषामगम्योऽपि सत्तारूपतयास्त्येव यन्मते स आत्मभूः = आत्मा नेत्र वालों को भी नहीं दीखता है तथापि वह सत्तारूप से है, ऐसा जिनमत में कहा है, जिनेश्वर ने आत्मा का स्वरूप सत्ता रूप है, ऐसा कहा है अतः जिनेश आत्मभू है । आत्माभूर्वृद्धिर्यस्य स आत्मभूः = आत्मा भू वृद्धिस्वरूप है ऐसा जिनेश्वर कहते हैं इसलिए आप आत्मभू हो । आत्मना भवति केवलज्ञानेन चराचरं व्याप्नोति इति आत्मभूः = केवलज्ञान से चराचर पदार्थों को जिनेश्वर व्यापते अतः आत्मभू हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy