________________
* जिन्सहस्रनाम टीका- १५७*
प्रभु जिनेश्वर का गर्भ श्रेष्ठ है। अतः वे रत्नगर्भ हैं। चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र, आदिकों के गर्भ की अपेक्षा तीर्थंकर का गर्भ श्रेष्ठ होने से उनके गर्भ को रत्नगर्भ कहना चोग्य है। तथा कर के माता के गर्भ में आने के छह माह पूर्व से तथा गर्भ में आने के अनन्तर नौ मास तक रत्नवृष्टि स्वर्ग से कुबेर करते हैं। अत: प्रभु रत्नगर्भ हैं।
प्रभास्वर : = 'कासृभासुदीप्तौ' भास् प्रपूर्वः प्रभासते इत्येवंशीलो प्रभास्वर : 'कासिपिसिभासीशस्थाप्रमदां च ' = कासृ भासृ धातु दीप्ति अर्थ में है 'प्र' उपसर्ग है । उत्कृष्ट रूप से देदीप्यमान कान्ति वाले होने से प्रभास्वर कहलाते हैं।
जगद्गर्भः = जगत्त्रैलोक्यं गर्भे यस्येति जगद्गर्भः- यह जगत् त्रैलोक्य जिनके गर्भ में है या जिनके ज्ञान में सर्वजगत् प्रभासित हुआ है। अतः जगद्गर्भ हैं।
हेमगर्भः = हेम स्वर्णं गर्भे मातुः कुक्षौ यस्येति हेमगर्भः = भगवान् जब्ब माता के गर्भ में आते हैं तब सुवर्णयुक्त रत्नवृष्टि होती है। अतः भगवान् हेमगर्भ कहे जाते हैं ।
सुदर्शनः = सुखेनानायासेन दृश्यते इति सुदर्शन : 'शासुयुधिदृशिधृषि मृषां वा' = अतिशय सुख से अनायास ही प्रभु का दर्शन होता है। या प्रभु का दर्शन भक्तों को सुखदायक है। अतः प्रभु सुदर्शन हैं।
लक्ष्मीवान् = लक्ष्मी: अनंतज्ञानादिका विद्यतेऽस्येति लक्ष्मीवान् तदस्यास्तीतिमत्त्वंतत्वात् = अनंतज्ञान-दर्शन- सुख-शक्ति रूप लक्ष्मी के धारक प्रभु हैं। उनकी यह लक्ष्मी घातिकर्म के नाश से प्राप्त हुई है। अतः वे सदैव लक्ष्मीवान् हैं।
त्रिदशाध्यक्षः = त्रिदशं प्रमाणमेषां ते त्रिदशाः देवास्तेषामध्यक्षः प्रत्यक्षीभूतः त्रिदशाध्यक्षः = देवों को भगवान प्रत्यक्ष होते हैं, विदेह आदि देशों में जिनेश्वरों का सतत विहार होता है । अतः देव वहाँ जाकर उनका दर्शन करते हैं। इसलिए वे देवों के लिए प्रत्यक्ष है।