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________________ * जिनसहस्रनाम टीका - १५१ * सदातृप्तः = सदा सर्वकालं तृप्त; पूर्णकामत्वात् सदातृप्तः, सदा अक्षुधित इत्यर्थः= वे सदाकाल तृप्त हैं अर्थात् अब वे पूर्णकाम हुए हैं। अब उनकी क्षुधा मिट गयी है। सदाशिवः = सदा सर्वकालं शिवं कल्याणं यस्येति सदाशिव:= भगवान सर्वकाल में शिव कल्याण रूप हैं। सदागतिः = सदा सर्वकालं गतिर्ज्ञानं यस्य स सदागतिः= भगवान सर्व काल में गति ज्ञान रूप ही रहते हैं। सदासौख्यः = सदा सर्वकालं सौख्यं परमानंदलक्षणं यस्य स सदासौख्य;सदा सर्वकाल में जो परमानंद सुख में लीन रहते हैं। सदाविद्यः = सदा सर्वकालं विद्या केवलज्ञानलक्षणं यस्य स सदाविद्य:= सर्वकाल भगवान केवलज्ञान लक्षण को धारण करते हैं। सदोदय: = सदा सर्वकालं उदयोऽनस्तगमनं यस्येति सदोदय; अथवा सदा सर्वदा सर्वकालं उत्कृष्टोऽयः शुभावहो विधिर्यस्य स सदोदय:- सर्वकाल उनका उदय ही रहता है, कभी उनका अस्त के प्रति गमन नहीं होता और भगवान सर्वकाल में शुभ भाग्ययुक्त ही रहते हैं। सुघोषः = सुष्टु शोभनो घोषो योजनध्वनिर्यस्य स सुघोषः= भगवान का सुन्दर घोष, शब्द या आवाज जिसे ध्वनि कहते हैं और जो दिव्य रूप से एक योजन तक सुनने में आती है अत: आप सुघोष हैं। सुमुखः = सुष्ठु शोभनं मुखं यस्य स सुमुख: विरागमुख इत्यर्थ:- भगवन्त का मुख सदा शोभायुक्त होकर भी वीतरागतामय होता है। सौम्यः = सोमो देवता यस्य स सौम्यः अक्रूर इत्यर्थः= भगवान सदा सौम्य अक्रूर शान्त ही रहते हैं। इसलिए सौम्य हैं। सुखदः = सुखं लौल्याभावे मनसो निर्वृत्तिः संतोषस्तत्सुखं ददाति यच्छत्तीति सुखद:= लोभ के अभाव में जो मन की सांसारिक भोगों से निर्वृत्ति होती है, संतोष होता है, निराकुलता होती है उसको सुख कहते हैं। उस सुख में स्वयं लीन हैं, शरण में जाने वालों को संतोष सुख प्रदान करते हैं अतः सुखद कहलाते हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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