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________________ # जिनसहस्रनाम टीका - १४२ * अर्थ : सुमेधा, विक्रमी, स्वामी, दुराधर्ष, निरुत्सुक, विशिष्ट, शिष्टभुक्, । शिष्ट, प्रत्यय, अनघः, ये दस नाम प्रभु के हैं। टीका : सुमेधा - ‘मिधृसंगमे च' मेधति मेधते संगच्छते मेधः सर्वधातुभ्यो सन् सुष्टुः शोभनं मेधः क्रतुर्यस्येति सुमेधाः । मेधा क्रतुरित्यनेकार्थे = अर्थ 'मिधृ' धातु संगमन (गमन और ज्ञान अर्थ में है) सुष्टु शोभन है मेधा जिसकी वे सुमेधा है। विक्रमी: = विक्रामत्यनेन विक्रम: विक्रमस्तेजोऽस्यास्तीति विक्रमी । तथा हलायुधे - प्राणस्थामबलधुम्नमोज: सूक्ष्मस्तरः सहः । प्रताप: पौरुषं तेजो विक्रमस्यात्पराक्रमः ।। विक्रम, तेज जिनको प्राप्त हुआ है ऐसे प्रभु विक्रमी हैं। हलायुधकोश में लिखा है कि प्राण स्था, बल, धुम्म, ओज, सूक्ष्मस्तर, प्रताप, पौरुष, तेज, विक्रम, पराक्रम ये सर्व एकार्थवाची हैं अतः बल, तेज, पराक्रम प्रताप के धारी होने से आप विक्रमी हो। स्वामी; = अमु गतौ सुपूर्वः शोभनममति स्वामी 'सावमेरिन् दीर्घश्च' अथवा स्वः आत्मा विद्यते यस्य स स्वामी स्वस्येति सुरात्वं च ?= सु उत्तम अमी गति मुक्तिदशा जिनकी है ऐसे भगवान स्वामी कहे जाते हैं। अथवा स्वआत्मा विद्यते यस्य स स्वामी, जिनकी आत्मा है ऐसे प्रभु स्वामी हैं अर्थात् आत्मा सर्वज्ञ है, ऐसे प्रभु स्वात्मा हैं। दुराधर्षः = दुःखेन महता कष्टेनापि आ समंतात् धर्षितुं स्फेटितुमशक्यो दुराधर्षः। 'ईषद् दु:ख सुख कृच्छात्कृच्छार्थेषु खलप्रत्ययः'। बड़े कष्ट से, बड़े भारी प्रयत्न से भी जिनका अपमानादिक करना, नाश करना, धर्षण करना अशक्य है अत: आप दुराधर्ष हैं। निरुत्सुकः= उत्सुनोति उत्सुकः उदो वा केनापित: निर्गत: उत्सुक: उत्तालकत्त्वं यस्येति स निरुत्सुकः स्थिरप्रकृतिरित्यर्थः। 'प्रतूर्णस्त्वरितस्तूर्णः
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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