SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ** जिनसहननाम टांका - १४० * अर्थ : नाभेय, नाभिज, जातसुव्रत, मनु, उत्तम, अभेद्य, अनत्यय, अनाश्वान, अधिक, अधिगुरु, सुगी। ये प्रभु के ग्यारह नाम सार्थक हैं - टीका : नाभेयः = नाभेरपत्यं पुमान् नाभेयः 'ईयस्तु हिते' = चौदहवें मनु नाभिराज के आप पुत्र हैं अतः नाभि के पुत्र नाभेय कहे जाते हैं। इसमें पुत्रअर्थ 'ईयण' प्रत्यय होकर नाभेय शब्द से निष्पन्न हुआ है। नाभिजः = नाभेर्नाभिकुलकरात् जातः नाभिजः, सप्तमीपंचमीतो जनेर्ड:, अन्यत्रापि च = नाभिराजा जो १४ ३ कुलकर थे, उनसे उत्पन्न होने से भगवान नाभिज कहलाते हैं। ‘जनी' धातु उत्पत्ति अर्थ में है उसमें पंचमी और सप्तमी दो विभक्ति होती है अतः नाभि राजा से उत्पन्न हुए नाभि नामक कुलकर से उत्पन्न होने से नाभिज कहलाते हैं। जातसुव्रतः = शोभनानि व्रतानि अहिंसासत्याचौर्यब्रह्माकिंचनादीनि रात्रिभोजनपरिहारषष्ठाणुव्रतानि जातानि सुव्रतानि यस्येति जातसुव्रतः = शोभित हैं जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, तथा आकिञ्चन रूप पाँच व्रतों से एवं रात्रिभोजनत्याग रूप षष्ठ अणुव्रत ये छह व्रत जिनके जात याने उत्पन्न हुए हैं ऐसे प्रभु जातसुव्रत हैं। मनुः = मन्यते जानाति तत्त्वमिति मनुः परि असिवसिहनिमनिश्रादि इंदिकंदिवंधि वह्याणिभ्यश्च उत्प्रत्यय:- जो तत्त्वों को जानता है, मानता है वह मनु कहलाता है। परि, असि, वसि, हनि, मनि, श्री आदि धातुओं के 'इ' वर्ण का लोप हो जाता है तथा शब्द का प्रयोग करने पर 'उ' प्रत्यय लगाने से 'मनु' बनता है अत: जो वस्तुस्वरूप को जानता है वह मनु कहलाता है। उत्तमः = उत् उत्कृष्टः उत्तमः। 'उदः प्रकृष्टे तमप् - प्रभु सबसे उत्कृष्ट श्रेष्ठ हैं, 'उत्' धातु उत्कृष्ट अर्थ में है उसमें तम' प्रत्यय लगाने से उत्तम शब्द निष्पन्न होता है। अत: सर्व में उत्तम होने से उत्तम हैं। ___ अभेद्यः = न भेत्तुं शक्यः अभेद्य:- जिन्हें उपसर्गादि के द्वारा भी कोई डिगा नहीं सकता, डिगाने में समर्थ नहीं है, ऐसे प्रभु अभेद्य कहे जाते हैं। अनत्ययः = अत्ययनं अत्ययो न अत्ययो विनाशो यस्येति अनत्यय:
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy