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________________ * जिनसहस्रनाम टीका १२३ महांचासौ भवाब्धि:, महाभवाब्धिः महाभवाब्धिं संतारयतीत्येवंशीलो महाभवाब्धिसंतारी = महान् अतिशय बड़ा ऐसा जो संसार रूप समुद्र भव्यों को तारने वाले प्रभु महाभवाब्धिसंतारी हैं। उससे महामोहाद्रिसूदनः = महांश्वासी मोह: महामोह:, महामोह एवाद्रि: महामोहाद्रिः महामोहाद्रिं सूदितवान् महामोहाद्रिसूदनः । महामोहलक्षणमुक्तमार्षे गुणभद्राचार्यै: = - अहं किल सुखी सौख्यमेतत्किल पुनः सुखम् । पुण्यात्किल महामोह:, काललब्ध्या विनाऽभवत् ।। महामोह रूपी पर्वत को प्रभु ने नष्ट किया। अतः प्रभु महामोहरूप पर्वत के विनाशक हैं। महामोह का लक्षण गुणभद्राचार्य ने ऐसा कहा है- मैं सुखी हूँ तथा यह सुख मुझे पुण्य से प्राप्त हुआ है, ऐसा महामोह काललब्धि के बिना हुआ है। महागुणाकरः = महागुणानां सम्यक्त्वज्ञान दर्शन वीर्य सूक्ष्मावगाहना गुरुलघुत्वाव्याबाधानां आकर : उत्पत्तिस्थानं स महागुणाकरः = सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, शक्ति, सूक्ष्मत्व, अवगाहना, अव्याबाधा और अगुरुलघुत्व, प्रभु इन आठ गुणों के आकर याने उत्पत्ति स्थान हैं इसलिए महागुणाकर कहे जाते हैं। क्षान्तः = क्षमते स्म क्षान्त: सर्वपरीषहादीन् सोढवानित्यर्थः = प्रभु ने रोषादिकों को जीता है। अत: वे क्षान्त हैं । महायोगीश्वरः = महायोगिनां गणधरदेवादीनामीश्वर: स्वामी महायोगीश्वरः महान् योगी याने गणधरादि और उनके ईश्वर स्वामी प्रभु हैं अतः महायोगीश्वर कहे जाते हैं। - 1 शमी: = शमः सर्वकर्मक्षयो विद्यते यस्य स शमी । समी इति पाठे समः समता परिणामो विद्यते यस्य स समी अथवा शाम्यतीति शमी 'शमाष्टानां धिनिण्' || = सर्व कर्मक्षय को शम कहते हैं। उसे धारण करने वाले प्रभु शमी हैं । समता परिणाम को धारण करने वाले प्रभु शमी हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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