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पी जिनसहस्रनाम टीका - ९९ * बुद्धबोध्यः = बोर्बु योग्यो बोध्यः, बुद्धो बुद्धितो ज्ञानो बोध्यः आत्मा येनासौ बुद्धबोध्यः = अपनी बुद्धि से प्रभु ने आत्म-ज्ञान किया है अत; वे बुद्धबोध्य हैं। समस्त ज्ञेय पदार्थ के आप ज्ञाता हैं अतः बुद्धबोध्य हैं।
महाबोधिः = महती बोपि. देश स्नानार्जाि यस्येति: महाबोधिः। उक्तं च -
रत्नत्रय परिप्राप्तिर्बोधिः सातीवदुर्लभा ।
लज्जा कथं कथञ्चिच्चेत्कार्यो यत्नो महानिह ।।
प्रभु की बोधि-वैराग्य अथवा रत्नत्रयप्राप्ति बहुत बढ़ चुकी है, अतः प्रभु महाबोधि हैं- रत्नत्रय की परिप्राप्ति पूर्णतया होना अतिशय दुर्लभ है, किसी तरह उसे प्राप्त करके सतत स्थिर करने के लिए महान् यत्न करना चाहिए। आपकी बोधि (रत्नत्रयरूप विभूति) अत्यंत प्रशंसनीय होने से आप महाबोधि
वर्द्धमानः = अव समंतात् ऋद्धः परमातिशयं परिप्राप्तो मानो ज्ञानं पूजा वा यस्य स वर्द्धमानः, 'अवाप्योरलोप:' अव-संपूर्णतया ऋद्ध-परमातिशय को प्राप्त हुआ है, मान, ज्ञान अथवा पूजा जिनकी ऐसे प्रभु वर्द्धमान हैं। आपके ज्ञानादि गुण अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हुए हैं अत: आप वर्द्धमान हैं।
महर्द्धिकः = महती ऋद्धिर्यस्य स महर्द्धिक: 1 संज्ञायां कः' उक्तं च
बुद्धि तवो वि य लद्धी विउवणलद्धी तहेव ओसहिया। रसवलक्खीणा वि य लद्धीणं सामिणं वंदे ।।
बढ़ गयी है ऋद्धि जिनकी, ऐसे प्रभु महर्द्धिक हैं। बुद्धिऋद्धि, तपऋद्धि, विपुलर्द्धि, विक्रिया ऋद्धि, औषधर्द्धि, रसऋद्धि, बलऋद्धि और अक्षीणर्द्धि ऐसी आठ ऋद्धियों के धारक प्रभु को वन्दन करता हूँ। अर्थात् आप महान् ऋद्धियों के स्वामी होने से 'महर्धिक' हैं।
वेदाङ्गो वेदविद्वेद्यो जातरूपो विदांवरः। वेदवेद्यः स्वसंवेद्यो विवेदो वदतांवरः ।।३।।