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________________ * जिनसहस्रनाम टीका १६ 1 1 सिद्धार्थतरुः, प्रातिहार्याणि, अष्टमंगलानि, ऊर्ध्व रेखादीनि अन्यानि च शुभलक्षणानि अष्टाशतं, प्रभु के दो हाथों और दो चरणों में श्रीवृक्षादि शुभलक्षण होने से जिनेश्वर का यह शुभलक्षण नाम यथार्थ है। वे ये हैं शंख, कमल, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चामर, श्वेतच्छत्र सिंहासन, ध्वज, दो मछली, दो कलश, कछुवा, चक्र, समुद्र, सरोवर, विमान, भवन, नाग, नारी, नर, सिंह, वाण, धनुष, मेरु, इन्द्र, गंगा, नगर, गोपुर, चन्द्र, सूर्य, जातिवंत घोड़ा, वीणा, व्यजन, वेणु, मृदंग, दो फूलमाला, बाजार, कपड़ा, भूषा, पक्वशालि क्षेत्र, सफलवन, रत्नद्वीप, वज्र, भूमि, महालक्ष्मी, सरस्वती, सुरभि - कामधेनु, वृषभ, चूड़ारत्न, महानिधि, कल्पवन्ती, धन, जम्बू, गण्ड, तारका, राजसदन, ग्रह, सिद्धार्थतरु और आठ प्रातिहार्य, आठ मंगल द्रव्य, ऊर्ध्वरेखा, आदि अन्य लक्षण भी १०८ प्रभु के होते हैं अतः वे प्रभु शुभलक्षण हैं। १०८ शुभ लक्षण के धारक होने से वे शुभलक्षण हैं । निरक्षः = निर्गतानि निर्नष्टानि अक्षाणि इंद्रियाणि यस्य यस्माद् वा सः निरक्षः, अनेकार्थे चोक्तम् अक्षं सौवर्चले तुच्छे हृषीके स्यात् जिनकी पाँचों ही इन्द्रियाँ नष्ट हो गयी हैं ऐसे जिनेश्वर को निरक्ष कहते हैं। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से संसारी जीवों के प्रदेशों में स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण तथा शब्द जानने की जो शक्ति उत्पन्न होती है और उस शक्ति से जो स्पर्शादि पदार्थगुण जाने जाते हैं, उस शक्ति को तथा उसके साधन को भावेन्द्रिय कहते हैं परन्तु उस ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय कर्म का जब पूर्ण क्षय होता है तो कर्म निरवशेष नष्ट होते हैं तब केवलज्ञान प्रकट होता है। वह केवलज्ञान आत्मप्रदेशों में सर्वव्यापी है। उस केवलज्ञान से अनन्तानन्त पदार्थ और उनके अनन्त पर्याय युगपत् केवली जानते हैं । यह सामर्थ्य इन्द्रियों में नहीं होती है। अतः दृश्य द्रव्येन्द्रिय दीखने पर भी केवली के भावेन्द्रियों का अभाव होने से वे निरक्ष कहे जाते हैं। इसलिए जिनेश्वर को निरक्ष कहना और मानना उचित है । जब वेदनीय, नाम, गोत्र तथा आयु इन चार अघाति कर्मों का नाश होता है, तब शरीर के संयोग से आत्मा के प्रदेशों की आकृति बनी हुई थी वह कुछ कम हो जाती है । परन्तु उन प्रदेशों में केवलज्ञान हमेशा के लिए होता है अतः प्रभु निरक्ष कहे जाते हैं। - -
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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