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________________ * जिनसहननाम टीका - ८६ * निरुपद्रवः = निर्गतो निर्नष्टो मूलादुन्मूलितः समूलकार्ष कषित: उपद्रव उत्पात उपसर्गो यस्य स निरुपद्रवः (निर्भयो) तपोविघ्नरहित इत्यर्थः - मूल से उन्मूलित, नष्ट कर दिये हैं उत्पात, उपद्रव, उपसर्ग जिन्होंने ऐसे जिनवर निरुपद्रव कहे जाते हैं अर्थात् निर्भय और तपोविघ्न रहित हैं। निर्निमेषो निराहारो निष्क्रियो निरुपप्लवः । निष्कलंको निरस्तैना निर्दूतागो निराम्रवः ॥७॥ अर्थ : निर्निमेष, निराहार, निष्क्रिय, निरुपप्लव, निष्कलङ्क, निरस्तैना, निर्धूताग, निरासव ये आठ नाम जिनेश्वर के हैं। ___टीका - निर्निमेषः = निर्गतो निमेष: चक्षषोर्मेणेन्मेषो यस्य स निर्निमेष: दिव्यचक्षु इत्यर्थः, लोचनस्पंदरहितः इति यावत् - निर्निमेष, जिनदेव की दो आँखों का हलन-चलन नहीं होता है। उनकी पलकें नीचे ऊपर नहीं होती हैं, क्योंकि उनके मोहादि चार घातिकर्मों का नाश होने से इच्छा, प्रयत्न उनमें नहीं होता है। अत: आँखों का खुलना-बन्द होना आदि क्रियायें नहीं होती हैं। अत: वे । निर्निमेष नाम के धारक हैं। निराहारः = निर्गत: निर्नष्ट: आहारो यस्य यस्माद्वा स निराहारः - आहारअन्नपान लेना-भोजन करना । अन्न, पान, खाद्य तथा लेह ये चार प्रकार के आहार उनके नहीं होते हैं। कवलाहार से रहित होने से निराहार हैं। निष्क्रियः = निर्गता क्रिया प्रतिक्रमणादिका यस्य स निष्क्रियः । भगवान् खलु प्रमादरहितस्तेन प्रतिक्रमणादि क्रिया रहितत्वानिष्क्रियः = आलोचना प्रतिक्रमणादिक क्रियायें वे नहीं करते हैं, क्योंकि वे प्रमादरहित होते हैं, नित्य सावधान होते हैं। अत: वे निष्क्रिय हैं। सांसारिक क्रियाओं से रहित होने से भी आप निष्क्रिय हैं। निरुपप्लवः = निर्गतो उपप्लवो विघ्नो यस्य स निरुपप्लवः = नष्ट हुआ है विघ्न जिनका ऐसे प्रभु निर्विघ्न होते हैं। अन्तराय घातिकर्म का नाश होने से वे जिनराज अनन्त प्राणियों के ऊपर अनुग्रह करने वाला अभयदानादि देते हैं, अपने धर्मोपदेश से भव्यों को संसार-समुद्र से तारते हैं। अत: उनका निरुपप्लव नाम यथार्थ है। अथवा आप बाधा रहित होने से निरुपप्लव हैं।
SR No.090231
Book TitleJinsahastranamstotram
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPramila Jain
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size5 MB
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