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________________ चउत्थगाहाए अत्थपरूवणा ५१ ६ ११६. संपहि जहा णाणावरणादणं गलिदसेसायामो गुणसेदिणिक्खेवो किमेवं तिविहस्स वि लोहस्स आहो तत्थावद्विदगुणसेढिणिक्खेवो त्ति आसंकाए इदमाह * तिविहस्स लोहस्स तत्तियो चेव णिक्खेवो । ६११७. कुदो एवं चे ? जाव अंतरं णावूरिज्जदि ताव मोहणीयपयडीणं जहावसरमोकडिज्जमाणाणमवद्विदो चेव गुणसेढिणिक्खेवो होदि त्ति परमगुरूवएसादो । एत्थोकडिज्जमाणस्स पदेसग्गस्स पढमविदियहिदीसु णिसिंचमाणस्स सेढिपरूवणा जाणिय कायव्वा । ____ * ताधे चेव तिविहो लोभो एगसमएण पसत्थउवसामणाए अणुवसंतो। ११८. तम्मि चेव सुहुमसांपराइयपढमसमए तिविहो लोहो पुव्वमुवसंतावत्थो संतो एगसमएणेव परिणामक्खएण पसत्थोवसामणाए अणुवसंतो जादो, तदो चेव तत्थोकड्डणादिकिरियाणं ताधे पुवत्ती ण विरुद्धा त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । सेसाओ पुण चरित्तमोहपयडीओ अज्ज वि उवसंताओ चेव, तासिमणुवसमपज्जायस्स जहाकममुवरि पादुब्भावदसणादो। संपहि पढमसमयसुहुमसांपराइस्स गाणावरणादिकम्माणं हिदिबंधपमाणावहारट्ठमुत्तरसुत्तारंभो 5 ११६. अब जिस प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मोंका गलित शेष आयामवाला गुणश्रेणिनिक्षेप होता है उसीप्रकार तीन प्रकारके लोभका भी होता है या उनका अवस्थित गुणश्रोणिनिक्षेप होता है ऐसी आशंका होनेपर यह आगेका सूत्र कहते हैं * तीन प्रकारके लोभोंका उतना-उतना ही निक्षेप होता है। ६ ११७. शंका-यह कैसे होता है ? समाधान-जबतक अन्तरको नहीं भरता है तबतक यथावसर आकर्षित होनेवाली मोहप्रकृतियोंका अवस्थित ही गुणश्रोणिनिक्षेप होता है ऐसा परम गुरुका उपदेश है। यहाँपर अपकर्षित होकर प्रथम-द्वितीय स्थितिमें निसिंचित होनेवाले प्रदेशपुंजकी श्रेणिप्ररूपणा जानकर करनी चाहिये। * उसी समय तीन प्रकारका लोभ एक समयमें प्रशस्त उपशामनासे अनुपशान्त हो जाता है। ६११८. उसी समय अर्थात् सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें तीन प्रकारका लोभ पहले उपशान्त अवस्थारूप होता हुआ एक समयमें ही परिणामोंके क्षयके कारण प्रशस्त उपशामनासे अनुपशान्त हो जाता है। वहींसे ही उन प्रकृतियोंमें अपकर्षणादि क्रियाकी प्रवृत्ति उस समय विरुद्ध नहीं है यह सूत्रका भावार्थ है। परन्तु चारित्रमोहकी शेष प्रकृतियां अब भी उपशान्त ही रहती हैं, क्योंकि उनकी अनुपशम पर्यायका क्रमसे ऊपर प्रादुर्भाव देखा जाता है। अब प्रथम
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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