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जयधवला
स्पष्ट करनेके लिए आचार्य यतिवृषभने देशोपशामनाके स्वरूपपर प्रकाश डालनेके लिए 'एसा कम्मपयडीसु' लिख कर श्वे० कर्मप्रकृतिकी ओर इशारा किया होगा इसे कोई भी परीक्षक स्योकार नहीं करेगा।
___ कसायपाहुडसुत्तकी प्रस्तावनामें एक बात यह भी स्वीकार की गई है कि श्वेताम्बर आम्नायमें प्रसिद्ध शतक, सप्ततिका और कर्मप्रकृतिचूणिके कर्ता भी आचार्य यतिवृषभ ही हैं सो ऐसा प्रतिपादन करना भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता। यद्यपि इस समय शतक और सप्ततिका'की चूणियां तो हमारे सामने नहीं हैं, कर्मप्रकतिकी चूणि अवश्य ही हमारे सामने है । अतः उसके आधारसे ही यहाँ इस बातका विचार किया जाता है कि श्वे० कर्मप्रकृतिचूर्णिके लेखक स्वयं यतिवृषभ आचार्य हैं या नहीं । यथा
(१) दिगम्बर परम्परामें संक्रमको बन्धका एक प्रकार मानकर उद्वेलना प्रकृतियाँ १३ स्वीकार की गई हैं-आहारकद्विक, सम्यक्त्व, मिश्र, देवगतिद्विक, नरकगतिद्विक, वैक्रियिकद्विक, उच्चगोत्र और मनुष्यगतिद्विक । गो० क० गाथा ४१५ ।
किन्तु श्वे. कर्मप्रकृति चूणिमें २७ उद्वेलना प्रकृतियां स्वीकार की गई हैं। यथा-अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, देवद्विक, नरकद्विक, वैक्रियिक सप्तक, आहारक सप्तक मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र । कर्मप्र० चू० प्रदेशसंक्रम पत्र ९५ आदि ।
(२) अपूर्वकरणमें स्थितिकाण्डकघात आदि कार्य प्रारम्भ हो जाते हैं। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर कषायप्राभृत चूणिमें स्थितिकाण्डकघातकी प्रक्रियापर प्रकाश डालते हुए दर्शनमोहनीयका जो स्थितिकाण्डकघात होता है उसमें उद्वेलना संक्रम नहीं स्वीकार करके मात्र यह उल्लेख दृष्टिगोचर होता है
पढमट्ठिदिखंडयं बहुअं, विदियट्टिदिखंडयं विसेसहीणं, तदियं ट्ठिदिखंडयं विसेसहीणं । एदेण कमेण ट्ठिदिखंडयसहस्सेहि बहुएहिं गदेहिं अपुवकरणद्धाए चरिमसमयं
पतो। भा० १३, पृ० ३६-३७ ।
किन्तु इसके स्थानमें इसी स्थिति काण्डकघात को श्वे० कर्मप्रकृतिचूणिमें उद्वेलना संक्रमपूर्वक स्वीकार किया गया है । यथा
अन्नं च उव्वलणालक्खणेण पठमट्ठिदिखंडयं सव्वमहन्तं । वितियं विसेसहीणं, ततिय विसेसहीणं जाव अपुव्वकरणस्स अंतिमट्ठितिखंडगं विसेसहीणं । उपशमनाकरण
अधिकार पृ० २५ । ।
यह दोनों चूणियोंका एक-एक उल्लेख है । इनमें से जहाँ कर्मप्रकृति चूणि में दर्शनमोहनीयके स्थितिकाण्डक घातको उद्वेलनासक्रम पूर्वक स्वीकार किया है वहाँ कषायप्राभूतचूर्णि इस तथ्यको स्वीकार नहीं करती। इस प्रकार दोनों चूणियोंका यह अन्तर उपेक्षा करने योग्य नहीं है। प्रथम कारण तो यह है कि एक तो दोनों परम्पराओंके अनुसार मिथ्यात्व कर्म उद्वेलनाप्रकृति नहीं है । दूसरे इस तथ्यको कर्मप्रकृति स्वीकार करतो है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो कर्म उद्वेलना प्रकृतियाँ होकर भी २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाला ही मिथ्यात्वदशामें इन दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना करता है । श्वे० कर्मप्रकृतिने इसे स्वीकार करते हुए लिखा है
१. कसायपाहुडसुत्त प्रस्तावना पृ० ३६ ।