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________________ चउत्थगाहाए अत्थपरूवणा * उवसंतकसायवीयरायस्स मोहणीयस्स वि त्थि किंचि वि करणं मोत्तूण दसणमोहणीयं, दसणमोहणीयस्स वि ओवणाकरणं संकमणाकरणं च अस्थि ।। ६.८८. उवसंतकसायवीयरायस्स मोहणीयस्स णत्थि किंचि वि करणमिदि एदेण सामण्णवयणेण दसणमोहणीयस्स वि सव्वकरणपडिसेहे पसत्ते तण्णिवारणटुं मोत्तूण दंसणमोहणीयमिदि वुत्तं । तत्थ वि ओकड्डणाकरणं संकमणाकरणं चेदि दो चेव करणाणि णिदिवाणि, सेसपरिहारेण दोण्हमेवेदेसिमेत्थ संभवोवलंभादो । * सेसाणं कम्माणं पि ओवणाकरणमुदीरणा च अस्थि, णवरि आउग-वेदणीयाणमोवट्टणा चेव ।। ८९. सेसकम्माणं पि णाणावरणादीणमुवसंतकसायम्मि ओवट्टणाकरणमुदीरणाकरणं चेदि दो चेव करणाणि होति, सेसाणमेत्थ संभवाणुवलंभादो । तं जहा-उवसंतकसायम्हि सव्वेसिं कम्माणं बंधो पत्थि । तेण बंधाभावे संकमो वि णत्थि, तस्स तण्णंतरीयत्तादो। तदभावे तस्सहचरिदमुक्कड्डणाकरणं पि णस्थि । तम्हा अणियट्टि०-सुहुमेसु होताणं पंचण्हं करणाणं मज्झे तिण्हमेदेसिं करणाणमेत्थ वोच्छेदेण सेसाणि दो चेव करणाणि होति ति भणिदं होदि । णवरि आउग-वेयणी करण यहाँ मोहनीयके होते हैं यह सिद्ध हुआ। परन्तु शेष कर्मोके पहले कहे गये वे ही करण जानना चाहिये उनके कथनमें कोई भेद नहीं है। * उपशान्तकषाय वीतरागके दर्शनमोहनीयको छोड़कर मोहनीयका कोई भी करण नहीं है । दर्शनमोहनीयका भी अपवर्तनाकरण और संक्रमणाकरण है। $ ८८. उपशान्तकषायवीतरागके मोहनीयका कोई भी करण नहीं है इस प्रकार इस सामान्य वचनसे दर्शनमोहनीयके भी सब करणोंका प्रतिषेध प्राप्त होने पर उसका निषेध करनेके लिए 'दर्शनमोहनीयको छोड़कर' यह वचन कहा है। उसमें भी अपकर्षणाकरण और संक्रमणाकरण ये दो ही करण निर्दिष्ट किए गये हैं, क्योंकि शेष करणोंका अभाव होकर ये दो ही करण यहाँ उसके पाये जाते हैं। * शेष कर्मोंके भी अपवर्तनाकरण और उदीरणाकरण हैं । इतनी विशेषता है कि आयु और वेदनीय कर्मका अपवर्तनाकरण ही है। $ ८९. शेष ज्ञानावरणादि कर्मोके भी अपवर्तनाकरण और उदीरणाकरण ये दो ही करण होते हैं, क्योंकि शेष करण यहाँ पर सम्भव नहीं हैं। यथा-उपशान्तकषायमें सभी कर्मोका बन्ध नहीं होता, इसलिए बन्धके अभावमें संक्रम भी नहीं होता, क्योंकि वह उसका अविनाभावी है। उसका अभाव होनेपर उसका सहचारी उत्कर्षणाकरण भी नहीं होता। इसलिए अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्परायमें होनेवाले पांच करणोंमेंसे तीन करणोंकी यहां व्युच्छित्ति हो जानेके कारण शेष दो ही करण होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इतनी विशेषता है कि आयुकर्म और
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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