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संकममुदीरणा च कदिभागो एदस्स गाहावयवस्स परूवणा
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* णवंसयवेदस्स पढमसमयज्वसामगस्स जाओ ठिदीओ बज्यंति ताओ थोवाओ ।
$ ५५. अंतरकरणे णिट्ठिदे णवु सयवेदस्स पढमसमयउवसामगो णाम जायदे | तस्स तक्काले जाओ द्विदीओ बज्झति मोहणीयस्स ताओ थोवाओ । किं कारणं १ अंतरकरणानंतरमेव मोहणीयस्स संखेज्जवस्सट्ठिदिबंधस्स पारंभदंसणादो ।
* जाओ संकामिज्जंति ताओ असंखेज्जगुणाओ ।
$ ५६. कुदों ? अंतोकोडाकोडीसागरोव मपमाण त्तादो। एत्थोव सामिज्जमाणाणं द्विदीणं णिसो किण्ण कदो त्ति णासंकणिज्जं, संकामिज्जमाणट्ठिदीसु चेव तासि - मंतभावो होदिति पुध णिद्देसाकरणादो । जो च तत्थ को वि अब्भंतरो सुहुममेदो सो वि वक्खाणादो जाणिज्जदे, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति न्यायात् । * जाओ उदीरिज्जंति ताओ तत्तियाओ चेव ।
५७. कुदो १ उदयाव लियबाहिरा सेसट्ठिदीण मुदीरिज्ज माणाणंतपमाणत्तदंसणादो ।
* उदिण्णाओ विसेसाहियाओ ।
* नपुंसकवेदका प्रथम समयमें उपशम करनेवालेके जो स्थितियाँ बँधती हैं थोड़ी हैं ।
५५. अन्तरकरण क्रिया समाप्त होनेपर नपुंसकवेदका प्रथम समयवर्ती उपशामक होता है । उसके उस समय मोहनीयको जो स्थितियाँ बँधती हैं वे स्तोक हैं, क्योंकि अन्तरकरण क्रिया करनेके अनन्तर ही मोहनीयका संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध देखा जाता है ।
* जो स्थितियाँ संक्रमित की जाती हैं वे असंख्यातगुणी हैं।
$ ५६. क्योंकि वे अन्तः कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण हैं ।
शंका- यहाँपर उपशमायी जानेवाली स्थितियोंका निर्देश क्यों नहीं किया ?
समाधान -- ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि संक्रमित की जानेवाली स्थितियोंमें ही उनका अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिए उनका अलगसे निर्देश नहीं किया है । और जो कुछ उनमें भीतरी सूक्ष्म भेद है वह भी व्याख्यानसे जान लिया जाता है, क्योंकि व्याख्यानसे विशेषकी प्रतिपत्ति होती है ऐसा न्याय है । तात्पर्य यह है कि प्रथम स्थितिगत स्थितियोंकी उपशमना नहीं होती, संक्रम होता है ।
* जो स्थितियाँ उदीरित की जाती हैं वे उतनी ही हैं ।
$ ५७. क्योंकि उदयावलिके बाहरको समस्त स्थितियाँ उदीरित की जाती हैं, इसलिए वे संक्रमित की जानेवाली स्थितियोंके बराबर देखी जाती है ।
* उदीर्ण स्थितियाँ विशेष अधिक हैं ।