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________________ प्रस्तावना कषायप्राभृत जयधवलाका यह चौदहवां भाग है। चारित्रमोह उपशमनाका प्रकरण है। उपशम श्रेणिपर आरोहणका कथन भाग १३में कर आये हैं । प्रकृतमें उपशम श्रेणिसे अवरोहणका विवेचन क्रम प्राप्त है। उसमें भी सर्वप्रथम उपशमश्रेणिकी अपेक्षा कषायप्राभृतमें जो आठ सूत्रगायाऐं निबद्ध हैं उनको लक्ष्यमें रखकर 'एत्तो सुत्तविहासा' यह चूर्णिसूत्र निबद्ध किया गया है। उन सूत्रगाथाओंको तो चारित्रमोहनीय उपशामना अनुयोग द्वारके प्रारम्भमें ही निबद्ध कर आये हैं। अतः हम यहां उनके पदोंका निर्देश न करके उनमें जिस विषयका प्रतिपादन किया गया है उसीका स्पष्टीकरण प्रकृतमें प्रस्तुत करेंगे। उपशामनाकरण और उसके भेद कर्मोके उदयादिपरिणामोंके विना उपशान्तभावसे अवस्थित रहना इसका नाम उपशामना है। इसके दो भेद हैं-करणोपशामना और अकरणोपशामना। करणोपशामना प्रशस्त और अप्रशस्त परिणामोंसे कर्मप्रदेशोंका उपशान्त रहना करणोपशामना है । अथवा फरणोंकी उपशामनाको करणोपशामना कहते हैं। उपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचना करण आदि आठ करणोंको प्रशस्त उपशामनाद्वारा उपशामना होना करणोपशामना है । अथवा अपकर्षण आदि करणोंकी अप्रशस्त उपशामनाद्वारा उपशामना होना करणोपशामना है यह उक्त कथन का तात्पर्य है। अकणोपशामना और उसके भेद __ यहां करणोपशामनाका जो लक्षण निर्दिष्ट किया है। इससे अतिरिक्त लक्षणवाली अकरणोपशामना होती है। प्रशस्त और अप्रशस्तकरण परिणामोंके बिना जिनका उदयकाल अभी प्राप्त नहीं हुआ है ऐसे कर्मपरमाणुओंका उदय परिणामके बिना अवस्थित रहना अकरणोपशामना है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। मलयगिरिने श्वे. कर्मप्रकृतिमें इसके लक्षणका निर्देश करते हुए लिखा है कि संसारी जीवोंके जैसे पर्वत और नदीके पत्थर चतुष्कोण और त्रिकोण परिणम कर अवस्थित रहते हैं वैसे ही अधःप्रवृत्तकरण आदि करण परिणामोंके बिना वेदनाके अनुभवन आदि कारणों से कर्मप्रदेशोंका उपशान्त होना अकरणोपशामना है। प्रकृतमें वीरसेन स्वामीने अकरणोपशामनाका जो लक्षण प्रतिपादित किया है उसमें बाह्य किसी कारणका निर्देश नहीं किया गया है। जब कि श्वे० कर्मप्रकृतिमें मलयगिरि अकरणोपशामनामें वेदनादिके अनुभवको कारणरूपसे प्रस्तुत करते हैं। मलयगिरिके अनुसार यह एक करणकृत और दूसरी अकरणकृत दोनों प्रकारकी देशोपशामनामें ही देखनी चाहिये, सर्वोपशामनामें नहीं, क्योंकि करणोंसे ही उसकी उत्पत्ति होती है। किन्तु यह कथन कषायप्राभृतकी चूणि और उसकी टीका दोनोंके विरुद्ध है। अकरणोपशामनाके दो भेद हैं-अकरणोपशामना और अनदीर्णोपशामना। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आलम्बन लेकर कर्मोंका जो विपाक परिणाम होता है उसे उदय कहते हैं
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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