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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * मायाए पुव्वफद्दयाणि अनंतगुणाणि । $५२८. कुदो ? पढमे अणुभागखंडए णिल्लेविदे लोहादिसंजलणेसु पुव्वफद्दयाणं जहाकममणंतगुणवडीए समवट्ठाणदंसणादो । होदु णाम लोभसंजलणस्स पुव्वफद एहिंतो मायासंजलणपुव्वफद्दयाणमणंतगुणत्तं, तत्थ विसंवादाभावादो । कथं पुण तत्तो अनंतगुणाहिंतो तव्वग्गणाहिंतो एदेसिमणंतगुणत्तणिण्णयो ? ण एस दोसो, वग्गणस लागगुणगारादो फद्दय सलागगुणगारस्साणंत गुणत्तन्भुवगमादो | ३७० * तेसिं चेव वग्गणाओ अनंतगुणाओ । माणस्स पुत्र्वफद्दयाणि अनंतगुणाणि । तेसिं चेव वग्गणाओ अनंतगुणा । कोहस्स पुव्वफद्दयाणि अनंतगुणाणि । तेसिं चेव वग्गणाओ अनंतगुणाओ । ५२९. दाणि सुत्ताणि सुगमाणि । * एवमंतो मुहुत्तमस्सकण्णकरणं । ९५३०. एवमणंतरपरूविदेण कमेण अणुभाग खंडय सहस्सेसु णिवदमाणेसु अपुव्वफद्दयसु च समए समए णिव्वत्तिज्जमाणेसु संखेज्जसहस्समे तट्ठिदिखंडयगन्भ * उनसे मायासंज्वलनके पूर्व स्पर्धक अनन्तगुणे हैं । ५२८. क्योंकि प्रथम अनुभागकाण्डकके निर्लेपित होनेपर लोभादि संज्वलनोंके पूर्व स्पर्धकों में क्रमसे अनन्तगुणीकी वृद्धि रूप अवस्थान देखा जाता हैं । शंका - लोभसंज्वलनके पूर्व स्पर्धकोंसे मायासंज्वलके पूर्व स्पर्धक अनन्तगुणे भले ही होओ, क्योंकि ऐसा होने में कोई विसंवाद नहीं पाया जाता । किन्तु लोभसंज्वलनके पूर्व स्पर्धकोंसे अनन्तगुणी उन्हींकी वर्गणाओंसे मायासंज्वलन के पूर्व स्पर्धक अनन्तगुणे होते हैं इसका निर्णय कैसे किया जाय ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वर्गणाशलाकाओंके गुणकारसे स्पर्धकशलाकाओंका गुणकार अनन्तगुणा स्वीकार किया गया है । इससे मालूम पड़ता है कि लोभसंज्वलन के पूर्व स्पर्धकोंकी वर्गणाओंसे मायासंज्वलनके पूर्व स्पर्धक अनन्तगुणे होते हैं । * उनसे उन्हींकी वर्गणाएँ अनन्तगुणी हैं। उनसे मानसंज्वलनके पूर्व स्पर्धक अनन्तगुणे हैं। उनसे उन्हींकी वर्गणाएँ अनन्तगुणी हैं। उनसे क्रोधसंज्वलन के पूर्व स्पर्धक अनन्तगुणे हैं। उनसे उन्हींकी वर्गणाएँ अनन्तगुणी हैं । $ ५२९. ये सूत्र सुगम हैं । * इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल तक अश्वकर्णकरण प्रवृत्त रहता है । ९५३०. इस प्रकार अनन्तर पूर्व कहे गये क्रमके अनुसार हजारों अनुभागकाण्डकों के पतित होनेपर और प्रत्येक समय में अपूर्व स्पर्धकोंके रचे जानेपर संख्यात हजार स्थितिकाण्डक
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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