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________________ ३६५ अस्सकण्णकरणपरूवणा विहाणादिकमो च जाव अस्सकण्णकरणद्धाचरिमसमओ ति णिव्वामोहमणुगंतव्वो, विसेमाभावादो । संपहि पढमादिसमएस णिव्वत्तिदाणमपुव्वफद्दयाणं पमाणविस ये णिण्णय समुप्पाणमुवरिममप्पाबहुअपबंधमाह - * पढमसमए अपुव्वफद्दयाणि णिव्वत्तिदाणि बहुआणि । विदियसमए जाणि अपुव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि कदाणि ताणि असंखेज्जगुणहीणाणि । तदियसमए अपुत्र्वाणि अपुव्वफद्दयाणि कदाणि ताणि असंखेज्जगुणहीणाणि । एवं समए समए जाणि अपुव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि कदाणि ताणि असंखेज्जगुणहीणाणि । गुणगारो पलिदोषमवग्गमूलस्से असंखेज्जदिभागो । $ ५१६. एत्थ गुणगारो 'पलिदोवमवग्ग मूलस्स असंखेज्जदिभागो' त्ति वुत्ते विदिय समयणिव्वत्तिदापुव्वफद्दएस जेण गुणगारेण गुणिदेसु पढमसमयापुव्वफद्दयाणं पमाणमुप्पज्जदि सो गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो होतॄण असंखेज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलमेत्तो अण्णो वा ण होदि, किंतु पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो चैव होदि । एवं सेसेसु वि समएसु णायव्वोति भणिदं होदि । तदो समए समए णिव्वत्तिज्जमाणाणि अपुव्वफद्दयाणि एयगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दयाणमसंखेज्जदिभागपमाणाणि होतॄण एदेण गुणगारविसेसेण हीयमाणाणि ददुव्वाणि ति एसो आदिके विधानका क्रम अश्वकर्णकरण कालके अन्तिम समय तक बिना व्यामोहके जानना चाहिये, क्योंकि उसमें कोई विशेषता नहीं है । अब प्रथम आदि समयोंमें रचे जानेवाले अपूर्वं स्पर्धकोंके प्रमाणविषयक निर्णय उत्पन्न करनेके लिये आगे के अल्पबहुत्वप्रबन्धको कहते हैं * प्रथम समयमें निष्पन्न किये गये अपूर्व स्पर्धक बहुत हैं । दूसरे समय में जो अपूर्व अपूर्व स्पर्धक किये गये वे असंख्यातगुणे हीन हैं। तीसरे समय में जो अपूर्व अपूर्व स्पर्धक किये गये वे असंख्यातगुणे हीन हैं । इस प्रकार समय-समय में जो अपूर्व - अपूर्व स्पर्धक किये गये वे उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हीन हैं । यहाँ गुणकार पल्योपमके वर्गमूलका असंख्यातवें भागप्रमाण है । 1 $ ५१६. यहाँ पर गुणकार 'पल्योपमके वर्गमूलका असंख्यातवाँ भाग है' ऐसा कहनेपर दूसरे समय में निष्पन्न हुए अपूर्व स्पर्धकोंको जिस गुणकारसे गुणा करनेपर प्रथम समय के अपूर्व स्पर्धकों का प्रमाण उत्पन्न होता है वह गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर असंख्यात पल्योपमके प्रथम वर्गमूलप्रमाण या अन्य नहीं होता, किन्तु पल्योपमके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाणही होता है । इसी प्रकार शेष समयोंमें भी जानना चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसलिये प्रत्येक समय में निष्पन्न होनेवाले अपूर्व स्पर्धक एक गुणहानिस्थानान्तरके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर इस गुणकारविशेषकी अपेक्षा उत्तरोत्तर हीयमान जानने चाहिये यह इस सूत्र के १. आ० प्रतौ पलिदोवमस्स इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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