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________________ खवगसेढीए अपुवफद्दयपरूवणा ३४३ सव्वेसि पि चरिमापुव्वफद्दयादिवग्गणाओ अण्णोण्णं पेक्खियण सरिसपमाणाओ समुप्पज्जंति, पढमफद्दयादिवग्गणाहितो विदियादिफद्दयाणमादिवग्गणासु दुगुणतिगुणादिकमेण गच्छमाणासु चरिमफद्दयादिवग्गणाए फद्दयसलागमेत्तगुणगारसिद्धीए परिप्फुडमुवलंभादो । एवमप्पप्पणो फद्दयसलागाहिं पढमफद्दयादिवग्गणं गुणिय समुप्पाइदचरिमफद्दयादिवग्गणपमाणमेदं संदिट्ठीए दट्ठव्वं १६८० । ४७४. अधवा लोहादिसंजलणाणमपुवफद्दयसलागाओ एदाओ १०५,८४, ७०, ६० । तेसिं चेवादिवग्गणाओ १६, २०, २४, २८ । एदाओ त्ति घेत्तण पयदत्थसमत्थणा कायव्वा । स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाऐं परस्पर देखते हुए सदशप्रमाणमें उत्पन्न होती हैं, क्योंकि प्रथम स्पर्धककी आदिवर्गणाओंसे दूसरे आदि स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाएं दुगुणे, तिगुणे आदि क्रमसे जाती हुई अन्तिम स्पर्धककी आदि वर्गणाके गुणकारकी सिद्धि जितनी स्पर्धकशलाकाएं हैं तत्प्रप्रमाण स्पष्टरूपसे उपलब्ध होती है । इस प्रकार अपने-अपने स्पर्धकोंकी शलाकाओंसे प्रथम स्पर्धकको आदिवर्गणाको गुणित कर उत्पन्न की गई अन्तिम स्पर्धकसम्बन्धी आदि वर्गणाओंका प्रमाण संदृष्टिकी अपेक्षा इतना जानना चाहिये-१६८० । $ ४७४. अथवा लोभादि संज्वलनोंके अपूर्व स्पर्धर्कोकी शलाकाएं ये हैं लोभ माया माया क्रोध अपूर्व स्पर्धक १०५ ८४ ७० ६० उन्हींकी आदि वर्गणाएँ ये हैं- लाभ लोभ माया मान क्रोध १६ २० २४ २८ । इस प्रकार इनको ग्रहण कर प्रकृत अर्थका समर्थन करना चाहिये। विशेषार्थ-यहाँ चारों संज्वलनोंके अन्तिम स्पर्धकोंकी आदि वर्गणाओंके अविभागप्रतिच्छेद परस्पर समान होते हैं इस तथ्यको दो प्रकारसे स्पष्ट किया गया है। प्रथम प्रकारमें चारों संज्वलनोंके प्रथम स्पर्षककी आदि वर्गणाओंके अविभागप्रतिच्छेद क्रोधादि क्रमसे १०५, ८४,७०, ६० स्वीकार कर उन्हें किये गये हैं। तथा इस प्रकारके अनुसार भी क्रोधादि चारोंके अन्तिम स्पर्णकोंकी आदि वर्गणाओंके अविभागप्रतिच्छेद समानरूपसे १६८० स्वीकार किये गए हैं। इस तथ्यको ध्यानमें रखकर क्रोधादि चारों संज्वलनोंकी स्पर्धक शलाकाएं क्रमसे १६, २०, २४ और २८ स्वीकर करना न्याय्यप्राप्त है। तदनुसार जो विधि सम्पन्न होती है वह इस प्रकार प्राप्त होती है क्रोध मान माया लोभ आदि वर्गणाके अविभाग प्रतिच्छेद १०५ ८४ ७० ६० अपूर्व स्पर्धक शलाकाऐं ___x १६ २० २४ २८ अन्तिम स्पर्धककी आदि वर्गणाओंके अविभाग० १६८० १६८० ६६८० १६८० दूसरे प्रकारके अनुसार गणित इस प्रकार प्राप्त होती है लोभ माया क्रोध लोभादि संज्वलनके अपूर्व स्पर्धक १०५ आदि वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद x२८ २४ २०१६ अन्तिम स्पर्धकके आदि वर्गणाके अविभागप्रति० १६८० १६८० १६८० १६८० मान
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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