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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे $ ४२१. एसा तदियभासगाहा 'गुणेण किं वा विसेसेण' इति एदं मूलगाहा - चरिमावयवमस्सियूण खवगोवसामणविसयाणमो कड्डुक्कड्ड णाणमवट्ठाण सहगदाणमप्पा बहुअपरूवणदुमोइण्णा । तं कथं ? 'वड्डीदु होइ हाणी' एवं भणिदे वड्डी णाम उक्कड्डणा, तत्तो हाणी ओकड्डणा बहुगी होदित्ति भणिदं होदि । 'हाणीदु तह अवट्ठाणं' एवं भणिदे ओकडुणादो ओकड्डुक्कडुणाहि विणा सत्थाणे चेवावट्ठिदं पदेसग्गमन्भहियं होदि । होंतं पि 'किं गुणेण आहो विसेसेणे' ति पुच्छिदे गुणेणेत्ति जाणावणट्ठमिदं वुच्चदे - 'गुणसेढि असंखेज्जा' असंखेज्जगुणाए सेडीए हाणीएं अवाणाणं पदेसग्गं जहाकममन्भहियं होइ त्ति भणिदं होदि । ३.१६ $ ४२२. एदस्स भावत्थो - खवगोवसामगेसु जस्स वा तस्स वा द्विदिविसेसस्स उक्कडिज्जमाणं पदेसग्गं थोवं, ओकडिज्जमाणं पदेसग्गमसंखेज्जगुणं, विसोहिपाहम्मादो । ओकड्डुक्कडुणाहि विणा सत्थाणे चेवा चिटुमाणं पदेसग्गमसंखेज्जगुणं हो । किं कारणं १ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागपडिभागेण गहिद गडदपदेसग्गस्स असंखेज्जदिभाग मुक्कड्डिदि सेसे असंखेज्जे भागे ओकडुदि । पुणो सत्थाणे द्विदअसंखेज्जा भागा अवट्ठाणसण्णिदा असंखेज्जगुणा भवंति । एवं णाणा $ ४२१. यह तीसरी भाष्यगाथा मूलगाथाके 'गुणेण किं वा विसेसेण' इस अन्तिम चरणका अवलम्बन लेकर क्षपक और उपशमश्रेणिविषयक अवस्थानके साथ प्राप्त हुए अपकर्षण और उत्कर्षणके अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए अवतीर्ण हुई है। शंका- वह कैसे ? समाधान –'वड्ढीदु होइ हाणी' ऐसा कहनेपर वृद्धिका नाम उत्कर्षण है। उससे हानि अर्थात् अपकर्षण बहुत होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । 'हाणीदु तह अवद्वाणं' ऐसा कहने पर अपकर्षणसे अपकर्षण और उत्कर्षणके बिना स्वस्थानमें ही अवस्थित प्रदेशपुंज अधिक होता है । ऐसा होते हुए भी 'किं गुणेण आहो विसेसेण' ऐसा पूछनेपर 'गुणेण' इस बातका ज्ञान कराने के लिये यह कहा है - 'गुणसेढि असंखेज्जा' असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे हानि और अवस्थानके प्रदेशपुंज यथाक्रम अधिक-अधिक होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । $ ४२२. इसका भावार्थ - क्षपक और उपशमक जीवोंमें जिस किसी स्थितिविशेषका उत्कर्षित होनेवाला प्रदेशपुंज सबसे थोड़ा है। उससे अपकर्षित होनेवाला प्रदेशपुंज विशुद्धिकी प्रधानतावश असंख्यातगुणा होता है। उससे अपकर्षण- उत्कर्षण के बिना स्वस्थान में ही अवस्थित रहनेवाला प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा होता है, क्योंकि पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रतिभाग के द्वारा ग्रहण किया गया एक स्थितिविषयक प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागको उत्कर्षित करता है। तथा शेष असंख्यात बहुभागको अपकर्षित करता है । पुनः उससे स्वस्थानमें स्थित असंख्यात बहुभागप्रमाण अवस्थानसंज्ञक प्रदेशपुरंज असंख्यातगुणे होते हैं । इसी प्रकार नाना स्थितियों की १. आ० प्रत्योः हाणी च इति पाठः । २ ता०प्रतौ ओकड्डुक्कड्डणादीहि इति पाठः ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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