SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०९ खवगसैढीए सत्तममूलगाहाए विदियभासगाहा ९ ३९८. ‘उक्कड्डदि बंघसमं' एवं भणिदे अणु मागफद्दयाणि उक्कड्डेमाणो बंधसममेव णियमा उक्कड्डदि बंधादो अधियफद्दय सरूवेण उक्कड्डणापवुत्तीए अच्चंताभावेण पडिसिद्धत्तादो । एत्थ वि जेण आवलियपविट्ठे ति अहियार संबंधो काव्वो । $ ३९९. 'णिरुवक्कम होदि आवलिया' एवं भणिदे बंधावलिया ओकड्डणुक्कड्णाहिं विणा णिरुत्रक्कमा होतॄण णिव्वाघादसरूवेणेव चिट्ठदित्ति वृत्तं होइ । अहवा 'णिरुवक्कम होदि आवलिया' एवं भणिदे ठिदीहिं वा अणुभागेहिं वा उक्कदिपदेसग्गमावलियमेत्तं कालं किरियंतरपरिणामेण विणा चिट्ठदि ति एसो अत्थो एदस्स सुन्तावयवस घेत्तव्वो । एसो अत्थो पुव्वमेव पंचमीए मूलगाहाए विदियभासगाहासंबंघेण विहासिदो चेव, तदो णिरत्थयमिदं सुत्तमिदि चे ? ण, पुव्वुत्तस्सेवत्थस्स पुणो वि मंदमेहाविजणाणग्गहङ्कं संभालणे दोसाभावादो । संपहि एवंविहमेदस्स गाहासुत्तस्स अत्थं विहासिदुकामो विहासागंथमुत्तरं भणइ— * विहासा । ४००. सुगमं । * एदिस्से गाहाए अण्णो बंधाणुलोमेण अत्थो, अण्णो सम्भावदो । अतिरिक्त सभी अनुभागस्पर्धकोंका अपकर्षण करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । $ ३९८. 'उक्कड्डदि बंधसमं' ऐसा कहनेपर अनुभागस्पर्धकोंका उत्कर्षण करता हुआ बन्धके सदृश स्पर्धकोंका ही नियमसे उत्कर्षण करता है, क्योंकि बन्धसे अधिक (शक्तिवाले) जो स्पर्धक हैं उनकी उत्कर्णणरूप प्रवृत्तिका अत्यन्त अभाव होनेसे वह प्रतिषिद्ध है । यहाँ पर भी 'जेण आवलियपविट्टे' इस वचनका अधिकारवश सम्बन्ध करना चाहिये । ६ ३९९. 'णिरुवक्कमं होइ आवलिया' ऐसा कहनेपर बन्धावलि अपकर्षण- उत्कर्षणके बिना निरुपक्रम होकर निर्व्याघातरूपसे अवस्थित रहती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अथवा 'णिरुपक्कम होई आवलिया' ऐसा कहनेपर स्थितियोंकी अपेक्षा अथवा अनुभागोंकी अपेक्षा उत्कर्षणको प्राप्त होनेवाला प्रदेशपुरंज एक आवलि कालतक दूसरी क्रिया किये बिना स्थित रहता है यह अर्थ इस सूत्रवचनका ग्रहण करना चाहिये । शंका- इस अर्थका पहले ही पांचवीं मूलगाथाकी दूसरी भाष्यगाथाके सम्बन्धसे व्याख्यान कर ही आये हैं, इसलिये यह सूत्र निरर्थक है ? समाधान — नहीं, क्योंकि मन्दबुद्धि व्यक्तियोंका अनुग्रह करनेके लिये पूर्वोक्त अर्थकी ही फिर भी सम्हाल करने में कोई दोष नहीं है । अब इस प्रकार इस गाथासूत्रके अर्थकी विशेष व्याख्या करनेकी इच्छासे आगेके विभाषाग्रन्थको कहते हैं— * अब उक्त गाथाकी विभाषा करते हैं । $ ४००. यह सूत्र सुगम है । * इस गाथाका बन्धानुलोमकी अपेक्षा अन्य अर्थ है और सद्भावकी अपेक्षा
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy