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________________ २९७ खवगसेढीए छट्ठी मूलगाहा ३६५. संपहि एत्थ उक्कस्साइच्छावणापमाणावहारणमुत्तरसुत्तमाह* उक्कस्सिया पुण अइच्छावणा केत्तिया ? $ ३६६. सुगमं । * जा जस्स उक्कस्सिया आषाहा सा उक्कस्सिया आवाहा समयाहियावलियणाए उक्कस्सिया अइच्छावणा । ३६७. जस्स जीवस्स उक्कस्सडिदि बंधमाणस्स जा उक्कस्सिया आवाहा तस्स सा उक्कस्सिया आबाहा समयाहियावलियणा उक्कस्सिया अइच्छावणा होइ, उदयावलियबाहिराणंतरहिदीए उक्कड्डिज्जमाणाए तदुवलंभादो । ३६८. एवमेत्तिएण पबंधेण डिदिउक्कड्डणाविसयाणं जहण्णुक्कस्सणिक्खे जाते जायेंगे उसी क्रमसे अतिस्थापनामें एक-एक समयकी वृद्धि होती जायगी। अब इस अतिस्थापनाकी वृद्धिका अन्त कहाँपर होता है उसे ही आगे स्पष्ट किया जा रहा है। ३६५. अब उत्कृष्ट अतिस्थापनाके प्रमाणका अवधारण करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * परन्तु उत्कृष्ट अतिस्थापना कितनी होती है ? ६३६६. यह सूत्र सुगम है । * जो जिस कर्मकी उत्कृष्ट आबाधा है एक समय अधिक एक आवलि कम वह उत्कृष्ट आबाधा उस कमेकी उत्कृष्ट अतिस्थापना होती है। ३६७. उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जिस जीवको तत्सम्बन्धी जो उत्कृष्ट आबाधा होती है उसकी वह उत्कृष्ट आबाधा एक समय अधिक एक आवलि कम होकर उत्कृष्ट अतिस्थापना होती है, क्योंकि उदयावलिके बाहरकी अनन्तर स्थितिका उत्कर्षण करनेपर वह प्राप्त होती है। विशेषार्थ-समझो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि किसी जीवने उत्कृष्ट संक्लेशके परवश होकर चारित्रमोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर उसकी चार हजार वर्षप्रमाण उत्कृष्ट आबाधा प्राप्त की। तदनन्तर बन्धावलिके बाद उसके अन्तिम निषेकके कुछ परमाणुपुंजका अपकर्षण कर उदय समयसे निक्षिप्त किया। तदनन्तर अगले समयमें उदयावलिके उपरितन निषेकमें निक्षिप्त हुए उस परमाणुपुजका उत्कर्षण कर आबाधाके ऊपर आगेकी स्थितियोंमें निक्षिप्त किया तो इस प्रकार उस उत्कर्षित द्रव्यकी उत्कृष्ट अतिस्थापना एक समय अधिक एक आवलि कम उत्कृष्ट आबाधाप्रमाण प्राप्त हो जाती है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। इसी प्रकार ज्ञानावरणादि अन्य छह कर्मोकी और दर्शनमोहनोयकी भी अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिको ध्यानमें रखकर उत्कृष्ट अतिस्थापना प्राप्त कर लेनी चाहिये । इस सम्बन्धमें विशेष स्पष्टीकरण पहले ही कर आये हैं। $ ३६८. इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा स्थिति उत्कर्षणविषयक जघन्य और उत्कृष्ट निक्षेप
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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