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खवगसेढीए तदियमूलगाहा
२९५ $३६१. एवमुक्कस्सणिक्खेवपमाणावहारणं कादूण संपहि अइच्छावणाए एयवियप्पत्तपडिसेहदुवारेण तत्थ संमवंताणं वियप्पाणं परूवणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो
* जाओ आवाहाए उवरि हिदीओ तासिमुफडिज्जमाणीणमहच्छावणा सव्वत्थ आवलिया।
$ ३६२. आबाहादो उवरिमाओ जाओ द्विदीओ तासिमुक्कड्डिज्जमाणाणमइच्छावणा जहणिया उक्कस्सिया च आवलियपमाणा चेव होदि, तत्थ पयारंतरासंभवादो त्ति वुत्तं होइ ।
5 ३६३. जाओ पुण आवाहाए अभंतरिमाओ संतकम्मद्विदीओ तासिमुक्कड्डणाए अइच्छावणावुड्ढी एवमणुगंतव्वा त्ति पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं मणइ
* जाओ आंबाहाए हेट्ठा संतकम्महिदीनो तासिमुक्कडिज्जमाणीण
बन्ध किया था उसकी अग्र स्थितिका एक आवलि कालके बाद अपकर्षण होकर उसका निक्षेप उदय समयसे होकर तदनन्तर उदयावलिके बाहरकी द्वितीय स्थितिका उत्कर्षण होनेपर अन्तमें एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण निषेकको छोड़कर आबाधाके ऊपरकी शेष सब स्थितियोंमें उसका निक्षेप होता है, इसलिये निक्षेपमेंसे उत्कृष्ट आबाधाके साथ एक समय अधिक एक आवलि काल कम कराया गया है।
इस प्रकार उत्कर्षणको अपेक्षा उत्कृष्ट अतिस्थापनाके साथ उत्कृष्ट निक्षेप कैसे बनता है इसका यहाँ आगमानुसार खुलासा किया। शेष कथन सुगम है।
* जो आबाधाके ऊपरकी स्थितियाँ हैं उत्कर्षणको प्राप्त हुई उनकी अतिस्थापना स्वत्र एक श्रावलिप्रमाण होती है।
$३६१. इस प्रकार उत्कृष्ट निक्षेपके प्रमाणका निश्चय करके अब अतिस्थापना एक प्रकारकी होती है इसके प्रतिषेध द्वारा उसमें सम्भव भेदोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है
६३६२. आबाधाकी उपरितन जो स्थितियां हैं उत्कर्षणको प्राप्त हुई उनकी जघन्य और उत्कृष्ट अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण ही होती है, क्योंकि वहाँ कोई दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
विशेषार्थ-उत्कर्षणकी अपेक्षा सोपक्रम और निरुपक्रमके भेदसे स्थिति भी दो प्रकारकी होती है। चाहे इन दोनोंमेंसे किसी भी प्रकारकी स्थिति क्यों न हो, यदि वे तत्काल बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्मकी जितनी आबाधा प्राप्त हो उससे अधिक स्थितिवाली हैं तो उनका विवक्षित बन्धमें उत्कर्षण होते समय अतिस्थापना सर्वत्र एक आवलिप्रमाण ही प्राप्त होती है । इस अतिस्थापनामें जघन्य और उत्कृष्टका भेद नहीं है ऐसा यहाँ समझना चाहिये।
६३६३. किन्तु जो आबाधाके भीतर सत्कर्मस्थितियाँ हैं उनकी उत्कर्षणविषयक अतिस्थापनाकी वृद्धि इस प्रकार जाननी चाहिये इस बातका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं
* जो आवाधाके नीचे (भीतर) सत्कर्म स्थितियाँ हैं उत्कर्षणको प्राप्त हुई