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________________ खवगसेढीए तदियमूलगाहा २९३ ९ ३५८. सुगमं । * कसायाणं ताव उक्कडिज्जमाणियाए हिदीए उक्कस्सगं णिक्खेवं वत्त इस्सामो । $ ३५९. सव्धेसि कम्माणमप्पप्पणो उक्करसट्ठिदिबंधकाले उक्करसओ णिक्खेवो समया विरोहेण संभवइ, किंतूदाहरणङ्कं कसायाणमेव ताव उक्कस्सणिक्खेवपमाणमिह वत्तहस्सामो त्ति एसो सुत्तत्थो । * चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ चदुहिं दस्ससहस्सेहिं आवलियाए समयुत्तराए च ऊणियाओ एसो उक्कस्सगो णिखेवो । $ ३६०. तं जहा—कसायाणमुक्कस्स डिदि बंधियूण बंघावलियाइ क्कंत समए चेव तं पदेसग्गमोड्यूिण हेट्ठा णिक्खिवदि । एवं णिक्खिवमाणेण उदयावलियबाहिरविदियदी णिक्खित्तपदे सग्गमाइङ्कं । पुणो तं पदेसग्गं से काले बज्झमाणुक्कस्सद्विदीए चालीससागरोत्रम कोडा कोडिपमाणाए उवरिं उक्कड्डमाणो चत्तारि वासस हस्समेत्तमुक्कस्साबाहमुल्लंघिपूर्ण उवरिमासु चेव णिसेगट्टिदीसु गिक्खिवदि ति उक्कस्सियाए आचाहांए ऊणिया कम्मट्ठिदी उक्कड्ड गाउक्कस्स णिक्खेवो होदि । णवरि § ३५८. यह सूत्र सुगम है ! * यहाँ सर्वप्रथम कपायोंकी उत्कर्षित की जानेवाली स्थितिका उत्कृष्ट निक्षेप कहेंगे । $ ३५९. सभी कर्मोंका अपना-अपना उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होते समय समयके अविरोधसे उत्कृष्ट निक्ष ेप सम्भव है । किन्तु उदाहरणस्वरूप प्रकरणके अनुसार कषायोंके ही उत्कृष्ट निक्षपके प्रमाणका अवधारण करनेके लिये यहाँ बतलावेंगे यह इस सूत्रका अर्थ है । विशेषार्थ - विवक्षित कर्मसम्बन्धी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय उस कर्मकी सभी सत्त्वस्थितियोंका उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होना सम्भव नहीं है, क्योंकि जिस कर्मके जिस सत्कर्म में जितनी शक्ति स्थिति होती है वहींतक उसका उत्कर्षण हो सकता है यह समझकर ही जयधवलाकारने अपने कथनमें 'समयाविरोहेण' इस पदका निर्देश किया है। * चार हजार वर्ष और एक समय अधिक एक आवलिसे हीन चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण यह उत्कृष्ट निक्षेप होता है । § ३६०. वह जैसे— कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर बन्धावलिके व्यतीत होनेके समयमें ही उस बन्धस्थितिके प्रदेशपुजका अपकर्षण कर नीचे निक्षिप्त करता है । इस प्रकार निक्षिप्त करने से उदयावलिके बाहर द्वितीय स्थितिमें निक्षिप्त हुआ प्रदेशपुरंज विवक्षित है । पुनः उस प्रदेश को अपकर्षण करनेके अनन्तर समयमें बँधनेवाली चालीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण उत्कृष्ट स्थिति के ऊपर उत्कर्षण करता हुआ चार हजार वर्षप्रमाण उत्कृष्ट आबाधाको उल्लंघन कर आबाधासे ऊपरको निषेक स्थितियोंमें ही निक्षिप्त करता है, इसलिए उत्कृष्ट
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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