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________________ खवगसेढोए चउत्थमूलगाहा * दुसमयुत्तरद्विविं बंधमाणो वि ण उकडुदि । $ ३५३. सुगमं । एत्थ वि कारणं, अणंतरणिहिद्वत्तादो । * एवं गंतूण आवलियुत्तरट्ठिदिं बंधमाणो ण उक्कडुदि । २९१ $ ३५४ एवं तिसमयुत्तरादिकमेण गंतूण जइ वि संतकम्मअग्गट्ठिदीदो आवलियुत्तरष्ट्ठिदिं बंधदि तो वि ण तत्थ णिरुद्ध संतकम्मअग्गट्टिदिक्कड्डदि त्ति वृत्तं होइ । किं कारणं १ एत्थ जहण्णा इच्छाव णासंभवे विणिक्खेव विसयासंभवेणुक्कड्डणपवृत्तीए पडिसिद्धत्तादो । पुणो केत्तियमेत्तं वड्डियूण बंधमाणस्स उक्कड्डणाए संभवोत्ति आसंकाए इदमाह- * जइ संतकम्मअग्गट्ठिदीदो बज्झमाणिया ट्ठिदी अदिरित्ता आवलिए आवलियाए असंखेज्जदिभागेण च तदो सो संतकम्मअग्गट्ठिदि सक्को उक्कडिदु । ९ ३५५. कुदो १ तहा बड्डियूण बंधमाणस्स आवलियमेत्तजहण्णाइच्छावणमुल्लंघियूण तदसंखेज्जदिभागमेत्तजहण्णणिक्खेवविसये उक्कड्डणपवृत्तीए पडिसेहामावादो | संपहि एदस्सेवत्थस्स फुडीकरणट्टमिदमाह- * दो समय अधिक स्थितिको बाँधता हुआ भी स्थितिसत्कर्मकी अग्र स्थितिको उत्कर्षित नहीं करता है । $ ३५३. यहाँ भी कारणका कथन सुगम है, क्योंकि उसका पहले ही निर्देश कर आये हैं । * इस प्रकार आगे जाकर एक आवलि अधिक स्थितिको बाँधता हुआ स्थितिसत्कर्मी अग्र स्थितिको उत्कर्षित नहीं करता है । $ ३५४. इस प्रकार तीन समय अधिक आदिके क्रमसे आगे जाकर यद्यपि सत्कर्मकी अग्रस्थिति से एक आवलिप्रमाण अधिक स्थितिको बाँधता है तो भी वहाँ विवक्षित सत्कर्मकी अग्रस्थितिको उत्कर्षित नहीं करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँपर जघन्य अतिस्थापनाके सम्भव होनेपर भी निक्ष पकी विषयभूत बन्धस्थितिके असम्भव होनेसे उत्कर्षणकी प्रवृत्ति निषिद्ध है । पुनः कितनी स्थिति को बढ़ाकर बाँधनेवालेके उत्कर्षण सम्भव है ऐसी आशंका होनेपर आगेके सूत्रको कहते हैं * यदि सत्कर्म की अग्रस्थितिसे उस समय बँधनेवाली स्थिति एक आवलि और एक आवलिका असंख्यातवाँ भाग अधिक होती है तो वह उस सत्कर्मकी अग्र स्थितिको उत्कर्षित कर सकता है । ३५५. क्योंकि उक्त प्रकारसे बढ़ाकर बन्ध करनेवाले जीवके आवलिप्रमाण जघन्य अतिस्थापनाको उल्लंघन कर उसके असंख्यातवें भागप्रमाण निक्ष पमें उत्कर्षणकी प्रवृत्ति होनेमें प्रतिषेधका अभाव है । अब इसी अर्थको स्पष्ट करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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