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________________ खवगसेढोए चउत्थमूलगाहा २६९ 'बंधो वा संकमो वा उदओ वा सगे सगे द्वाणे' सत्थाणे कथं पयद्वृदि १ किमहिओ होण पयवृदि, आहो हीणो होदूण, किं वा समो होदूण पयहृदि ति पुच्छादुवारेणेसा गाहा बंधादिपदाणं से काले भेदमस्सियूण सत्थाणप्पा बहुअं परूवेदि । $ २९६. एत्थ पुव्वसुत्तादो पदेसाणुभागग्गहण मणुवट्टावेयव्वं । 'गुणेण किं वा विसेसेणेत्ति' एसो वि अहियारसंबंघो एत्थ दट्ठव्वो । तेण बंधादो बंधो, संकमादो संकमो, उदयादो उदओ सण्णियासिज्जमाणो णिरुद्धसमयादो से काले अणुभागविसये किं छवडि-हाणीहिं अहिओ हीणो समो वा होदि ? पदेसविसये च किं चउव्विहाए वड्डीए etite अहिओ हीण समो वा होदि ति एसो एत्थ गाहासुत्तस्स समुदायस्थो । संपहि एदिस्से मूलगाहाए जीहिं भासगाहाहिं विवरणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ * एविस्से गाहाए तिण्णि भासगाहाओ । $ २९७. सुगमं । * तासिं समुत्तिणा तहेव विहासा च । $ २९८. सुगमं । * जहा । होनेवाले बन्ध, संक्रम और उदय स्वक स्वक स्थानमें अर्थात् स्वस्थानमें कैसे प्रवृत्त होता है ? क्या अधिक होकर प्रवृत्त होता है, या क्या हीन होकर प्रवृत्त होता है ? या क्या समान होकर प्रवृत्त होता है इस प्रकार पृच्छा द्वारा यह गाथा बन्धादिक पदोंके तदनन्तर समयमें भेदका आलम्बन लेकर अर्थात् पृथक्-पृथक् स्वस्थान अल्पबहुत्वका कथन करती है । $ २९६. यहाँपर पूर्व सूत्रसे प्रदेश और अनुभाग पदको ग्रहण कर उनका अनुवर्तन करना चाहिये । 'गुणेण किं वा विसेसेण' इस प्रकार अधिकारवश इसका भी सम्बन्ध जान लेना चाहिये । इसलिये विवक्षित समयसे तदनन्तर समय में बन्धके साथ बन्धका संक्रमके साथ संक्रमका और उदयके साथ उदयका सन्निकर्ष होता हुआ अनुभागके विषयमें छह वृद्धियों और छह हानियोंकी अपेक्षा क्या अधिक होता है, क्या होन होता है या क्या समान होता है । तथा प्रदेशोंके विषयमें चार वृद्धियों और चार हानियोंकी अपेक्षा प्रत्येक क्या अधिक होता है क्या हीन होता है या क्या समान होता है इस प्रकार यहाँपर यह गाथासूत्रका समुदायरूप अर्थ है । अब इस मूलगाथाका तीन भाष्यगाथाओं के द्वारा विवरण प्रस्तुत करते हुए आगे सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * इस मूलगाथाकी तीन भाष्यगाथाएँ हैं । $ २९७. यह सूत्र सुगम है । * अब इन भाष्यगाथाओंकी समुत्कीर्तना तथा उसी प्रकार विभाषा करते हैं । $ २९८. यह सूत्र सुगम है । जैसे | *
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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