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________________ २२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 5 १७७. एदिस्से गाहाए पुन्वद्वेण संकामणपट्ठवगस्स सव्वेसि कम्माणं द्विदिसंतकम्मपमाणं परूविदं, जहण्णुक्कस्सट्ठिदिसंतकम्मपरिहारेण मज्झिमहिदीसु अजहण्णाणुक्कस्ससण्णिदासु तदवट्ठाणपरूवणादो। पच्छद्रेण वि अणुमागसंतकम्मपमाणपरूवणा कदा। साद-सुम-णाम-गोदाणमादेसुक्कसाणुभागसंतकम्मपदुप्पायणदुवारेण सव्वासिं सुभासुभाणं कम्माणमणुभागसंतकम्मपमाणावहारणादो । एसो एदिस्से गाहाए समुदायस्थो । संपहि एदिस्से गाहाए अवयवत्थपरूवणट्ठमुवरिमं चुण्णिसुत्तपबंधमाह * मज्झिमहिदीसु त्ति अणुक्कस्स-अजहणहिदीसुत्ति भणिदं होदि । ६ १७८. एदेण सुत्तेण गाहापुव्वद्धो विहासिदो होदि । सेसाणं पदाणं सुबोहत्ताहिप्पायेण 'मज्झिमहिदीसु' ति एदस्सेव पदस्स अत्थपरूवणादो। तदो सव्वेसि कम्माणमंतरदुसमयकदावत्थाए असंखेज्जवस्सपमाणो अजहण्णाणुक्कसो हिदिसंतकम्मवियप्पो पुव्वुत्तेण अप्पाबहुअविहाणेण होदि त्ति घेतव्वो। संपहि गाहापच्छद्धविहासणमिदमाह ___ * साद-सुभ-णाम-गोदा तहाणुभागेसु दुक्कसा त्ति । ण च एदे ओघकस्सा, तस्समयपाओग्गउक्कस्सगा एदे अणुभागेण । ~ ६ १७७. इस गाथाके पूर्वार्ध द्वारा संक्रामणप्रस्थापकके सभी कर्मोंके स्थितिसत्कर्मका प्रमाण कहा गया है, क्योंकि जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मके निषेधपूर्वक अजघन्य-अनुत्कृष्ट संज्ञावाली मध्यम स्थितियोंमें उसके अवस्थानकी प्ररूपणा की गई है। उत्तरार्ध द्वारा भी अनुभागसत्कर्मके प्रमाणको प्ररूपणा की गई है, क्योंकि उसमें सातावेदनीय, शुभनाम और गोत्रकर्म, इनके आदेश उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके कथन द्वारा सभी शुभाशुभ कर्मोके अनुभागसत्कर्मके प्रमाणका अवधारण किया गया है यह इस गाथाका समुदायरूप अर्थ है । अब इस गाथाके अवयवोंके अर्थका कथन करनेके लिये आगेके चूर्णिसूत्रप्रबन्धको कहते हैं * माष्यगाथामें मध्यम स्थितियोंमें ऐसा कहनेपर उससे अनुत्कृष्ट-अजघन्य स्थितियोंमें ऐसा जानना चाहिये । ६ १७८. इस सूत्र द्वारा गाथा पूर्वार्धका व्याख्यान किया गया है। शेष पद सुबोध हैं इस अभिप्रायसे मात्र 'मज्झिमट्टिदीसु' इस पदका अर्थ कहा है । इसलिये सभी कर्मोंकी अन्तर क्रिया सम्पन्न होनेके दूसरे समयमें असंख्यात वर्षप्रमाण अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मरूप विकल्प पूर्वोक्त अल्पबहुत्वविधानके अनुसार होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये । अब गाथाके उत्तरार्धका व्याख्यान करनेके लिए इस सूत्रवचनको कहते हैं सातावेदनीय, शुभनाम और गोत्रकर्म ये अनुभागोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट होते हैं। किन्तु ये ओघसे उत्कृष्ट नहीं होते, मात्र उस समयके योग्य अनुभागकी अपेक्षा उत्कृष्ट होते हैं।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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