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________________ खवगसेढीए संकामणपट्ठवगस्स पढमसुत्तगाहाए पढमभासगाहा २२१ * भासगाहाओ परूविज्जंतीओ चेव भणिदं होंति, गंथगउरवपरिहरणहें। १६५ ताओ भासगाहाओ पादेक्कं विहासिज्जमाणाओ चेव समुक्कित्तिज्जंति, सव्वासिमेक्कवारेणेव समुक्कित्तणं कादूण पुणो वि पादेक्कमुच्चारिय अत्थपरूवणे कीरमाणे गंथगउरवप्पसंगादो। तदो मूलगाथमेगं चेव पढममुच्चारिय पुणो तप्पडिबद्धाणं भासगाहाणं समुक्कित्तणमत्थविहासणं च एक्कदो भणामो त्ति एसो एदस्स भावत्थो । एवमुवरि वि भासगाहाणमेसो उच्चारणाविही जहावसरमणुगंतव्यो। संपहि जहापइण्णमेव भासगाहाणं विहासणं कुणमाणो पढमभासगाहाए ताव विसयविभागपदंसणमुहेण समुक्कित्तणहमिदमाह * मोहणीयस्स अंतरदुसमयकदे संकामगपट्ठवगो होदि । एत्थ सुत्तं । ६१६६. अंतरकरणं समाणिय विदियसमए वट्टमाणो मोहणीयस्स संकामणपट्ठवगो णाम होदि । तत्थेदमुवरिमं गाहासुत्तं पडिबद्धमिदि वुत्तं होइ । अंतरकरणादो पुव्वं पि चरित्तमोहणीयस्स संकामगपट्ठवगो चेव, अण्णहा अट्ठण्हं कसायाणं तत्तो हेट्ठा खवणाणुववत्तीदो। तहा च संते अंतरदुसमयकदे तदो पहुडि मोहणीयस्स संकामणपट्ठवगो होदि ति णेदं घडदे ? ण एस दोसो, हेट्ठा खविदाणमट्ठण्हं कसायाणं मोहणीयस्स सव्वदव्वरसाणंतिमभागत्तेण पाहणियाणुवलंभादो, तेसि खवणाए अंतर ___ * ग्रन्थके गौरवका परिहार करनेके लिये भाष्यगाथाएँ ही प्ररूपणा करनेवाली होती हैं यह प्रकृतमें कहा गया है । ६ १६५. पृथक्-पृथक् व्याख्यान करती हुई उन भाष्यगाथाओंकी समुत्कीर्तना करते हैं। सभी गाथाओंकी एक बारमें हो समुत्कीर्तना करके पुनरपि प्रत्येकका उच्चारणा करके अर्थकी प्ररूपणा करनेपर ग्रन्थके गौरवका प्रसंग आता है, इसलिए एक मूलगाथाका ही सर्वप्रथम उच्चारण करके पुनः उससे सम्बन्ध रखनेवाली भाष्यगाथाओंकी समत्कीर्तना और अर्थसम्बन्धी व्यास साथ करते हैं यह इसका भावार्थ है। इसी प्रकार ऊपर भी भाष्यगाथाओंकी यह उच्चारणाविधि यथावसर जानना चाहिये। अब प्रतिज्ञानुसार ही भाष्यगाथाओंका व्याख्यान करते हुए सर्वप्रथम भाष्यगाथाके विषयविभागको दिखलानेकी प्रमुखतासे समुत्कीर्तना करनेके लिये यह सूत्र कहते हैं * द्विसमयकृत अन्तर होनेपर मोहनीयकर्म के संक्रामणका प्रस्थापक होता है । १६६. अन्तरकरण समाप्त करके दूसरे समयमें विद्यमान जीव मोहनीयकर्मका संक्रामणप्रस्थापक कहलाता है। उस विषयमें यह गाथासूत्र सम्बद्ध है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-अन्तरकरणके पहले भी चारित्रमोहनीयका संक्रामणप्रस्थापक ही है, अन्यथा आठ कषायोंकी उससे पूर्व क्षपणा नहीं बन सकती। और ऐसा होनेपर अन्तरकरण करनेके दूसरे समयसे लेकर मोहनीयकर्मका संक्रामण प्रस्थापक होता है यह घटित नहीं होता? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि नीचे अर्थात् पूर्वमें क्षपित हए आठ कषायोंका द्रव्य मोहनीयकर्मके समस्त द्रव्यके अनन्तवें भागप्रमाण होनेसे उसकी प्रधानता नहीं है, दूसरे
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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