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________________ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे $ ६८. कुदो ? वोच्छिण्णबंधाणमप्पसत्थकम्माणं खवगोवसामगेसु गुणसंकमं मोत्तूण पयारंतरस्सासंभवादो । १७८ * तदो द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु परभवियणामाणं बंधवोच्छेदो जादो। ६९. अपुव्वकरण द्वाए छसु सत्तभागेसु गदेसु परभवसंबंधीणं बंधवोच्छेदो जादो त्ति मणिदं होदि । काणि ताणि परमवियणामाणि ति वुत्ते – देवगदि - पंचिंदियजादि वे उब्वियाहारतेजा कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण- वेउव्वियाहारसरीरं गोवंग - वण्णगंध रस - फास - देवगइपाओग्गाणुपुव्वि - अगुरुअलहुआदि ४ - पसत्थविहायगदि - तसादि ४थिर- सुभ-सुभग- सुस्सरादेज्ज - णिमिण- तित्थयरणामाणि । कुदो एदेसिं परभविय सण्णा ? परभव संबंधिदेवगदीए सह बंधपाओग्गत्तादो । ण जसमित्तीए वि बंधवोच्छेदो एत्थासंकणिज्जो, परभवियणामत्ताविसेसे वि तिस्से उवरिमविसोहीहिं अविरुद्धबंघाए जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमयो त्ति बंधुवरमाभावादो । संपहि एतो उवरि वि पुव्वत्तेणेव कमेण संखेज्जेसु द्विदिबंध सहस्सेसु गच्छमाणेसु तदो अपुव्वकरणद्धा समप्पदि चि जाणावणट्ठमुत्तरसुत्तमाह * तदो द्विदिबंधसहस्सेसु गदेसु चरिमसमयअपुव्वकरणं पत्तो । ९ ६८. क्योंकि बन्धसे व्युच्छिन्न हुई अप्रशस्त प्रकृतियोंका क्षपकश्रेणि और उपशमश्रेणिमें गुणसंक्रमको छोड़कर दूसरा प्रकार असम्भव है । * तत्पश्चात् हजारों स्थितिबन्धोंके जानेपर परभवसम्बन्धी नामकर्मकी प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है । $ ६९. अपूर्वकरणके छह-सात भागों के जानेपर परभवसम्बन्धी प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वे परभवसम्बन्धी प्रकृतियाँ कौन हैं ऐसा पूछनेपर कहते हैं – देवगति, पञ्चेन्द्रिजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आंगोपांग, आहारकशरीर आंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु आदि चार, प्रशस्तविहायोगति, त्रसादि चार, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थंकर । शंका- इनकी परभवसम्बन्धी प्रकृतियाँ यह संज्ञा किस कारण है ? समाधान — क्योंकि ये परभवसम्बन्धी देवगतिके साथ बन्धके योग्य हैं, इसलिये इनकी उक्त संज्ञा है । किन्तु यहाँ पर यशः कीर्तिकी बन्धव्युच्छित्तिकी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि परभवसम्बन्धी नामक की अपेक्षा विशेषता न होनेपर भी उसका सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयतक उपरम विशुद्धियों के साथ बन्धका विरोध न होनेसे उसके बन्धका अभाव नहीं होता, अर्थात् दसर्वे गुणस्थानके अन्तिम समयतक उसका बन्ध होता रहता है । अब इससे आगे भी पूर्वोक्त क्रमसे ही संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके जानेपर तब अपूर्वकरण काल समाप्त होता है इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगे के सूत्रको कहते है * तत्पश्चात् हजारों स्थितिबन्धोंके जानेपर यह अपूर्वकरणके अन्तिम समयको
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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