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________________ खवगसेढोए अपुव्वकरणे कज्जविसेसो १७५ * जे अप्पसत्थकम्मंसा ण बज्झति तेसिं कम्माणं गुणसंकमो जादो। ६५८. पडिसमयमसंखेज्जगुणाए सेढीए पदेसग्गस्स परपयडीसु संकमो गुणसंकमो त्ति मण्णदे । सो वुण अप्पसत्थाणमेव कम्माणमवज्झमाणाणं होदि, अण्णत्थ तप्पवृत्तीए असंभवादो। एवंलक्षणो गुणसंकमो पुव्वमसंतो एण्हिमपुव्वकरणपढमसमए पारद्धो ति मणिदं होइ ५। * तदो हिदिसंतकम्मं विदिबंधो च सागरोवमकोडिसदसहस्सपुषत्तमंतोंकोडाकोडीए । बंधादो पुण संतकम्मं संखेवगुणं । 5 ५९. अपुव्वकरणपढमसमए डिदिबंधो द्विदिसंतकम्मं च सागरोवमकोडिसदसहस्सपुधत्तमंतोकोडाकोडीए वदि त्ति घेत्तव्वं । गवरि डिदिबंधादो द्विदिस्तकम्म संखेज्जगुणमेत्तं होदि, सम्माइहिबंधसंताणं तहाभावेणेव सव्वत्थावट्ठाणदंसणादो । * एसा अपुवकरणपढमसमए परूवणा। 5६०. सुगमं । 8 एत्तों विदियसमए णाणत्तं । शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-सूत्रके अविरुद्ध व्याख्यानसे जाना जाता है ४ । * जो अप्रशस्त कर्म नहीं बँधते हैं उन कर्मोंका गुणसंक्रम होने लगता है। $ ५८. प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणे श्रेणिरूपसे प्रदेशपुंजका पर-प्रकृतियोंमें संक्रम होना गुणसंक्रम कहा जाता है । परन्तु वह नहीं बंधनेवाले अप्रशस्त कर्मोंका ही होता है, क्योंकि अन्यत्र उसकी प्रवृत्तिका होना असम्भव है। इस प्रकारके लक्षणवाला गुणसंक्रम पहले नहीं होता था, अब अपूर्वकरणके प्रथम समयमें प्रारम्भ हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ५। * वहांसे स्थितिसत्कर्म और स्थितिबन्ध कोड़ाकोड़ी सागरोपमके भीतर कोड़िलक्षपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण होने लगता है। किन्तु बन्धसे सत्कर्म संख्यातगुणा होता है। ६५९. अपूर्वकरणके प्रथम समयमें स्थितिबन्ध और स्थितिसत्कर्म कोडाकोड़ी सागरोपमके भीतर कोडिलक्षपृथक्त्वसागरोमप्रमाण होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि स्थितिबन्धसे स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवोंके बन्ध और सत्त्वका सर्वत्र उसी रूपसे अवस्थान देखा जाता है। * यह अपूर्वकरणके प्रथम समयमें की गई प्ररूपणा है । ६६०. यह सूत्र सुगम है। * आगे दूसरे समयमें नानापनको कहते हैं। २. आ०प्रतौ सूत्रमिदं १. ताप्रती 'जे अप्पसत्थकम्मंसा' इत्यादि सूत्रं टीकायां सम्मिलितन् । टीकायां सम्मिलितम् ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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