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________________ जयधवला १२ उपशामना हो जाने पर भी उपशमसम्यदृष्टिके अपकर्षणकरण और संक्रमकरण इन दो कारणोंकी प्रवृत्ति चालू रहती है । यहां चारित्रमोहनीयकी उपशामना प्रकृत है, क्योंकि उपशम श्रेणीमें दर्शन मोहनीयकी उपशामना तो होती ही नहीं है, क्योंकि जो उपशमश्रेणि पर आरोहण करनेके पूर्व ही दर्शन मोहनीयकी उपशामना या क्षपणा कर चुका है वही उपशम श्रेणि पर आरोहण करने का अधिकारी होता है । तथा अनन्ताबन्धीकी उपशामना होती नहीं । यहाँ मात्र उसकी विसंयोजना ही होती है । इसलिये प्रकृतमें अप्रत्याख्यानावरण आदि १२ कषाय और हास्यादि नोकषाय इन २१ प्रकृतियोंकी सर्वोपशामना ही विवक्षित है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । २१ प्रकृतियोंकी उपशामनाका क्रमनिर्देश जो जीव पुरुषवेदके उदयके साथ श्रेणिपर आरोहण करता है वह नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, सात नोकषाय, तीन क्रोध, तीन मान, तीन माया और सूक्ष्म कृष्टि लोभको छोड़कर तीन लोभ इन २१ प्रकृतियोंको उक्त परिप टीक्रमसे सर्वोपशामना करता है। तथा इसके बाद सूक्ष्मकृष्टिगत लोभकी उपशामना करता है । और इस प्रकार पूरा मोहनीय कर्म उपशान्त हो जाता है । यहाँ इनमें से प्रत्येक प्रकृति उपशम करने में अन्तर्मुहूर्त काल लगता है और समस्त २१ प्रकृतियोंके उपशम करने में भी अन्तर्मुहूर्त काल लगता है । आशय यह है कि जिस कर्मके उपशम करनेका प्रारम्भ करता है प्रथम समय में उसके सबसे कम प्रदेश पुंजका उपशम करता है, दूसरे समय में उससे असंख्यातगुणे प्रदेशपुजको उपशमाता है । तीसरे समय में उससे भी असंख्यातगुणे प्रदेश - पुंजको उपशमाता है । यह क्रम विवक्षित प्रकृतिके पूरी तरह से उपशम होनेके अन्तिम समय तक चालू रहता है । इसी प्रकार समस्त २१ प्रकृत्तियोंके विषय में समझना चाहिये । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि उदयावलिप्रमाण स्थितियोंका और बन्धावलिप्रमाण स्थितियोंका उपशम नहीं होता, क्योंकि वे अनन्तर पर प्रकृतिरूप परिणम जाते हैं । इसी प्रकार अनुभागसम्बन्धी सभी स्पर्धकों और सभी वर्गणाओंकी उपशामना करता है । यहाँ बन्धावलि और उदयावलिको छोड़कर ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि जितने भी स्थितियोंके भेद हैं उन सबमें स्पर्धक और सब वर्गणाएँ पाई जाती हैं । यहाँ संक्रम, उदीरणा, बन्ध, उदय और सत्त्व के प्रसंगसे भी ऊहापोह करते हुए अल्पबहुत्व द्वारा उसे स्पष्ट किया गया है सो उसे मूलसे समझ लेना चाहिये । यहाँ तकका जितना विवेचन है वह नपुंसकवेद और स्त्रीवेद पर अविकल घटित हो जाता है । मात्र उदय और उदीरणा उस-उस वेदसे श्रेणिपर चढ़े हुए जीवके ही कहनी चाहिए। तथा आठ कषाय और छह नोकषायकी अपेक्षा उक्त प्ररूपणा उदय और उदीरणाको छोड़कर ही करनी चाहिये । अब रहे पुरुष वेद और चार संज्वलन सो इनकी अपेक्षा भी उदय और उदीरण्मको ध्यान में रखकर विचार करनेपर कदाचित् अनियम बन जाता है । यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि पहले जो आठ करण कहे हैं उनमें अप्रशस्त उपशामनाकरण, निधत्तीकरण और निकाचनाकरणकी प्रवृत्ति आठवें गुणस्थानके अन्तिम समय तक ही होती है । नौवें गुणस्थानके प्रथम समयमें इनकी व्युच्छित्ति हो जाती है । इसका अर्थ है कि आठवे गुणस्थान तक जो कर्म अभी तक उदयमें दिये जानेके अयोग्य थे और जिन कर्मोंका यथासम्भव संक्रम, उत्कर्षण और अपकर्षण नहीं हो सकता था उनका नौवें गुणस्थान के प्रथम समयसे ये सब कार्यं प्रारम्भ हो जाते हैं । यद्यपि वस्तुस्थिति यह अवश्य है पर आगे प्रशस्त उपशामना द्वारा चारित्र मोहनीयसम्बन्धी उन कर्मोंका भी प्रशस्त परिणामोंके द्वारा उपशम कर दिया जाता है और इसीलिये प्रकृतमें आठ करणोंकी उपशामनाको सर्वोपशामना कहा गया है ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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