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________________ ७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे दो वि एक्कदो काढूण जोइज्जमाणे का बहुआ का वा थोवा ति पुच्छिदे ओदरमाणसुहुमसां पराइयद्धा विसेसहीणा भवदि अंतोमुहुत्तमेत्तेण । एवं चेव चड - माणोदर माणसंबंधिसव्वद्धाणमण्णोष्णं पेक्खियूण विसेसाहियहीणभावो जोजेयव्वो । अत्र चोद्यते - अंतरकणं काढूण विदिक्कतो जो कालो चडमाणसंबंधिओ ण सो पडिणियत्तिय पुणरागच्छदि, बोलीणस्स तस्स पुणरागमणाविराहादो । तदो कधमेदं बुच्चदे, ' णत्रु सयवेदे अणुवसंते जाव अंतरकरणद्धाणं ण पावेदि' त्ति तहाविहसंभवस्स जुत्तिवाहियत्तादो १ एत्थ परिहारो वुच्चदे – सच्चमेदं, ण सो कालो पुणरागच्छदि त्ति इच्छिज्ज माणत्तादो । किंतु अंतरकरणं काढूण उवरि चढिय उवसंतकसायो हो दूण पुणो ट्ठा ओदरमाणस्स उवसंतद्धादो उवरि होदूण ट्ठिदो एसो णवु सयवेदस्साणुवसंतकालो उवसामगस्स णव सयवेदोवसामणद्धाये थोरुच्चयेण सरिसपरिमाणो ति कादूणेदस्स तब्भावोवचारेण अंतरकरणुद्देसं पि एत्थेव बुद्धीए संकप्पिय जेणेसा परूवणा आढता तदो ण किंचि विरुज्झदे, उवसामगद्धाविवज्जासेण परिवदमाणद्धाओ विलोमक्कमेण वेदूण एसा परूवणा आढत्ता त्ति । तम्हा णव सयवेदे अणुवसंते जाव अंतरकरणुद्द सं ण पावदि ताव एदमद्वाणं संखेज्जखण्डे करिय तत्थ बहुभागेसु गदेसु संखेज्जदिभागे च सेसे मोहणीयस्स संखेज्जवस्सियट्ठिदिबंधमुल्लंघियूण असंखेज्जसिओ द्विदिबंध पारद्धो ति सुसंबंधं । वालेका सूक्ष्मसाम्पराय काल इस प्रकार इनको मिलाकर देखनेपर कौन काल बहुत होता है और कौन काल स्तोक होता है ऐसी पृच्छा होनेपर उतरनेवालेका सूक्ष्मसाम्पराय काल अन्तर्मुहूर्तमात्र विशेष हीन होता है । इसी प्रकार चढ़नेवाले और उतरनेवाले जीवोंके सम्पूर्ण कालोंको परस्पर मिलाकर देखते हुए क्रमसे विशेष अधिक और विशेष हीन कालकी योजना करनी चाहिये । शंका- यहाँ पर शंकाकार कहता है कि अन्तरकरण करके चढ़नेवालेसे सम्बन्ध रखनेवाला जो काल व्यतीत हो गया है वह लौटकर फिर नहीं आता है, क्योंकि व्यतीत हुए उस कालका पुनः लौटकर आनेका विरोध है । इसलिये यह कैसे कहते हैं कि 'नपुंसकवेदके अनुपशान्त होनेपर जबतक अन्तरकरणके कालको नहीं प्राप्त करता है', क्योंकि उस प्रकारका सम्भव युक्तिबाह्य है ? समाधान - यहाँ उक्त शंकाका परिहार करते हैं—यह कहना, सत्य है कि वह काल फिर लौटकर नहीं आता, क्योंकि यह हमें इष्ट है । किन्तु अन्तरकरण करके ऊपर चढ़कर और उपशान्तकषाय होकर पुनः नीचे उतरनेवालेके उपशान्त कालसे ऊपर होकर स्थित हुआ यह नपुंसकवेदका अनुपशान्त काल, उपशामकके नपुंसकवेदसम्बन्धी उपशामना कालसे, थोड़े फरक सदृश प्रमाणवाला है ऐसा करके इसके उसके सद्भावके उपचार द्वारा यहाँपर अन्तरकरण स्थानका बुद्धि संकल्प करके चूँकि यह प्ररूपणा स्वीकर की गई है, इसलिए यह कुछ भी विरुद्ध नहीं है । क्योंकि उपशामकके कालके विपर्यास द्वारा गिरनेवालेके कालोंको विलोम क्रमसे स्थापित कर यह प्ररूपणा आरम्भ की गई है। इसलिए नपुंसकवेदके अनुपशान्त होनेपर जबतक अन्तरकरणस्थानको नहीं प्राप्त करता है तबतक इस स्थानके संख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुत खण्डोंके जाने पर और संख्यातवें भागके शेष रहनेपर मोहनीयकर्मके संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्धको उल्लंघन कर असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध प्रारम्भ किया इस प्रकार यह सूत्रकथन सुसम्बद्ध है ।
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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