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________________ उवसमसेढीदो ओदरमाणस्स परूवणा ७३ * एत्तो हिदिबंधसहस्सेसु गदेसु इत्थिवेदमेगसमएण अणुवसंतं करेदि, ताधे चेव तमोकडियूण आवलियबाहिरे गुणसेढिं करेदि, इदरेसिं कम्माणं जो गुणसेढिणिक्खेवो तत्तिओ च इत्थिवेदस्स वि, सेसे सेसे च णिविखवदि। १७१. सुगमो एसो सुत्तपबंधो। एवमित्थिवेदमणुवसंतं कादूण हेहा ओयरमाणस्स पुणो वि संखेज्जसहस्समेत्तेसु डिदिबंधेसु अणंतरपरूविदेणेव अप्पाबहुअविहिणा समइक्कतेसु णवंसयवेदे च अज्ज वि अणुवसंतभावम(च्छ)छ(ड)माणे ? एदम्मि अवत्थंतरे वट्टमाणस्स जो द्विदिबंधविसयो विसेसो तण्णिद्देसकरण द्वमुत्तरसुत्तमोइण्णं * इत्थिवेदे अणुवसंते जाव णव॑सयवेदो उवसंतो एदिस्से अद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु णाणावरण-दसणावरण-अंतराइयाणमसंखेजवस्सियहिदिबंधो जादो। ६ १७२. चढमाणस्स इथिवेदोवसामणद्धाए संखेज्जदिभागे गदे जम्हि उद्देसे तिण्हमेदेसि कम्माणमसंखेज्जवस्सिओ द्विदिबंधो पज्जवसिदो संखेज्जवस्सिओ च द्विदिबंधो पारद्धो तमुद्देसं थोवंतरेण अपत्तस्सेवेदस्स णाणावरणदंसणावरणअंतराइयाणं संखेज्जवस्सियविदिबंधपरिक्खएण असंखेज्जवस्सिओ हिदिबंधो जादो त्ति एसो एत्थ * यहाँसे लेकर हजारों स्थितिवन्धोंके जानेपर एक समय द्वारा स्त्रीवेदको अनुपशान्त करता है और उसी समय उसका अपकर्षण कर उदयावलिके बाहर गुणश्रेणिको करता है। यहाँ दूसरे कर्मोंका जो गुणश्रेणिनिक्षेप होता है उतना ही स्त्रीवेदका भी गुणश्रेणिनिक्षेप होता है । तथा शेष-शेषमें निक्षेप करता है। $ १७१. यह सूत्रप्रबन्ध सुगम है । इस प्रकार स्त्रीवेदको अनुपशान्त करके नीचे उतरनेवाले जीवके फिर भी अनन्तर प्ररूपित की गई अल्पबहुत्व विधिसे ही संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर नपुसकवेदके अभी भी अनुपशान्त भावको नहीं प्राप्त होते हुए ऐसी बीचकी अवस्थामें विद्यमान हुए उसके जो स्थितिबन्ध विषयक विशेषता होती है इसका निर्देश करनेके लिए आगेका सूत्र आया है * स्त्रीवेदके अनुपशान्त होनेपर जबतक नपुंसकवेद उपशान्त रहता है इस कालके संख्यात बहुभागोंके व्यतीत होनेपर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोंका असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध हो जाता है। ६ १७२. चढ़नेवाले जीवके स्त्रीवेदके उपशामना कालके संख्यातवें भाग जानेपर जिस स्थानमें इन तीन कर्मोंका असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध समाप्त होकर संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध प्रारम्भ होता है उस स्थानको थोड़ेसे अन्तरके द्वारा नहीं प्राप्त करनेवाले इस जीवके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मोंका संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्धका क्षय हो जानेसे १०
SR No.090226
Book TitleKasaypahudam Part 14
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size40 MB
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