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जयधवला
एकमात्र नपुंसकवेद शब्दका ही प्रयोग हुआ है' । ( ३ ) श्वे० कर्मप्रकृतिमें अविरत सम्यग्दृष्टिके लिये 'अजऊ' शब्दका प्रयोग हुआ है । इसकी चूर्णिमें इसके स्थानमें 'अजत' शब्द दृष्टिगोचर होता है । जब कि कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिमें अविरत सम्यग्दृष्टिके अर्थमें इस शब्दका प्रयोग नहीं ही हुआ है । शब्द प्रयोगभेदके ये कतिपय उदाहरण हैं, जिनको लक्ष्य में लेनेसे भी यही निश्चित होता है कि इन दोनों चूणियोंके कर्ता आचार्य यतिवृषभ नहीं हो सकते यह स्पष्ट ही है । और न ही आ० यतिवृषभने अपनी चूर्णि लिखते समय श्वे० कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिका पदानुसरण ही किया है । कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिमें झीनाझीन अधिकार और स्थिति या स्थित्यन्तक आदि ऐसे अनेक अनुयोगद्वार हैं जो श्वे० कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णि में नाममात्रको भी उपलब्ध नहीं होते । अतः यह स्पष्ट है कि उन विषयोंपर चूर्णिसूत्र लिखते समय जिन गुरुओं और मूलपूर्व आगमको आधार बनाकर उन्होंने उन विषयोंपर चूर्णिसूत्र लिखे हैं उन्हीं गुरुओं और पूर्व आगमको आधार बनाकर ही उन्होंने शेष चूर्णिसूत्रोंकी भी रचना की है, अतः कसायपाहुडसुतकी उक्त प्रस्तावना में यह स्वीकार करना भी हास्यास्पद प्रतीत होता है कि
'यतिवृषभके सम्मुख षट्खण्डागम के अतिरिक्त जो दूसरा आगम उपस्थित था वह है कर्म साहित्यका महान् ग्रन्थ कम्मपयडी । इसके संग्रहकर्ता या रचयिता शिवशमं नामके आचार्य हैं और उस ग्रन्थ पर श्वेताम्बराचार्योंकी टीकाके उपलब्ध होनेसे अभी तक यह श्वेताम्बर सम्प्रदायका ग्रन्थ समझा जाता रहा है । किन्तु हालमें ही उसकी चूर्णिके प्रकाशमें आनेसे तथा प्रस्तुत कसायight चूर्णिका उसके साथ तुलनात्मक अध्ययन करनेसे इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता है कि कम्मपयडी एक दिगम्बर परम्पराका ग्रन्थ है और अज्ञात आचार्यके नामसे मुद्रित और प्रकाशित उसकी चूर्णि भी एक दिगम्बराचार्य इन्हीं यतिवृषभकी ही कृति है' पृ० ३१ |
(५) हाँ उपशमना प्रकरणकी इन दोनों चूर्णियोंके अध्ययनसे इतना अवश्य ही स्वीकार किया जा सकता है कि जिस श्वेताम्बर आचार्यने कर्मप्रकृति चूर्णिकी रचना की है उनके सामने कषायप्राभृत चूर्णि अवश्य रही है । प्रमाणस्वरूप कषायप्राभृत गाथा १२२ की चूर्णि और श्वे० कर्मप्रकृति गाथा ५७ की चूर्णि द्रष्टव्य है
कदिविहो पडिवादो — भवक्खएण च उवसामणक्खएण च । भवक्खएण पदिदस्स सव्वाणि करणाणि एगसमएण उग्घाडिदाणि । पढमसमए चैव जाणि उदीरज्जति कम्माणि ताणि उदयावलियं पवेसदाणि, जाणि ण उदीरंजति ताणि वि ओकड आवलियबाहिरे गोवुच्छाए सेढीए णिक्खित्ताणि । क० पा० सुत्त पृ० ७१४ । यह कषायप्राभूत चूर्णिका उल्लेख है । इसके प्रकाश में श्वे० कर्मप्रकृति उपशमनाप्रकरणकी इस चूर्णपर दृष्टिपात कीजिए
याणि पडिपातो सो दुविहो - भवक्खएण उवसमद्धक्खएण य । जो भवक्खण पडिवज्जइ तस्स सव्वाणि करणाणि एतसमतेण उग्घाडिदाणि भवंति । पढमसमते जाणि उदीरंज्जति कम्माणि ताणि उदयावलियं पवेसियाणि, जाणि ण उदीरिज्जंति ताणि उकड्डऊण उदयावलियबाहिरतो उवरि गोपुच्छागिती ढी तेति । जो उवसमद्धाक्खएणं परिपडति तस्स विहासा । पत्र ६९
१. गा० ६५ और उसकी चूर्णि ।
२. गा० २७ और उसकी चूर्णि ।