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गाथा ११४ ]
अणियट्टिकरणे कज्जविसेस परूवणा
ट्ठिदिबंधेहिं सरिससंतकम्माणुप्पत्तदो । एत्थ हेट्ठिमोरिमट्ठिदिबंधाणमण्णोणेण विसेसं काढूण द्विदिखंडयपुधत्ताणं बहुत्तसंखाविसेसिदाणमियत्तावहारणं दरिसेयव्वं । संपहि एत्तो वि डिदिसंतकम्मस्स ओवट्टणाकमो सुत्ताणुसारेणाणुमग्गिज्जदे |
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* तदो डिदिखंडयपुधत्तेण पलिदोवमठिदिगं जादं दंसणमोहणीयतमं ।
६ ६२. सुगममेदं सुत्तं ।
* जाव पलिदोवमट्ठिदिसंतकम्मं ताव पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो ठिदिखंडयं । पलिदोवमे ओलुत्ते तदो पलिदोवमस्स संखेज्जा भागा
आगाइदा |
विवक्षित चतुरिन्द्रिय आदि जीवोंके स्थितिबन्धोंके समान सत्कर्म नहीं हो सकता । यहाँ पर नीचे और ऊपर के स्थितिबन्धोंका परस्पर अन्तर निकालकर बहुत संख्या विशिष्ट स्थितिकाण्डकपृथक्त्वोंकी इयत्ताका परिमाण दिखलाना चाहिए। अब इससे आगे भी स्थितिसत्कर्म अपवर्तनाक्रमसे सूत्र के अनुसार जान लेना चाहिए ।
विशेषार्थ — दर्शनमोहनीयके तीनों भेदोंका स्थितिसत्कर्म स्थितिकाण्डकघातोंके द्वारा उत्तरोत्तर किस प्रकार घटता जाता है यह यहाँ पर सूत्रों द्वारा स्पष्ट किया गया है। पहले अपूर्वकरणके प्रथम समय में वह अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण था । फिर हजारों स्थितिकाण्डकघात होकर अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें वह लक्षपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण रह गया । उसके बाद भी उक्त विधिसे वह घटता हुआ असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्धके समान एक हजार सागरोपमप्रमाण रह गया । पुनः उक्त विधिसे घटता हुआ क्रमसे चतुरिन्द्रिय जीवोंके सौ सागरोपमप्रमाण, त्रीन्द्रिय जीवोंके पचास सागरोपमप्रमाण, द्वीन्द्रिय जीवोंके पच्चीस सागरोपमप्रमाण और एकेन्द्रियजीवोंके एक सागरोपमप्रमाण रह जाता है । यहाँ सर्वत्र स्थितिकाण्डकोंका प्रमाण (संख्या) सर्वत्र पूर्व के और बादके इस प्रकार दो स्थितिबन्धों के बीच के अन्तरको निकालकर उसके अनुसार जान लेना चाहिए। उदाहरणार्थ असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्धों में नौ सौ सागरोपमोंका अन्तर है, अतः एक हजार सागरोपमसे सौ सागरोपमप्रमाण स्थितिसत्त्व के होनेमें जितने स्थितिकाण्डकोंकी संख्या होगी आगे वह सौ सागरोपमप्रमाण स्थिति सत्त्वसे त्रीन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्ध के समान पचास सागरोपमप्रमाण स्थितिसत्त्व के होनेमें स्थितिकाण्डकों की संख्या कम होगी । इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए ।
* इसके बाद स्थितिकाण्डक पृथक्त्वके द्वारा दर्शनमोहनीयका स्थितिसत्कर्म पन्योपमप्रमाण स्थितिवाला हो जाता है ।
$ ६२. यह सूत्र सुगम है ।
* जबतक षन्योपमसे अधिक स्थितिकत्कर्म रहता है तबतक पन्योपमके
१. ता० प्रतौ औसुलुत्ते इति पाठः ।