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________________ गाथा १२३ ] चरित्तमोहणीय-उवसामणाए करणकजणिद्देसो ३२३ भावादो। जहा मिच्छत्तफद्दयाणि सम्मत्तसरूवेणुदयमागच्छमाणाणि सगसरूवं छड्डिय अणंतगुणहीणाणि होदणुदये पविसंति, सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तफद्दयाणि मिच्छत्तायारेण उदयमागच्छमाणाणि सगसरूवपरिच्चागेणाणंतगुणाणि होदूणुदये णिवदंति, ण च विरोहो, एवमिहावि उवरिमहेडिमासंखेजदिभागकिट्टीओ मज्झिमकिट्टिसरूवेण वेदिज्जंति त्ति ण किंचि विप्पडिसिद्धं । संपहि तम्मि चेव समए किट्टीणमुवसामणाविहाणपरूवणढमिदमाह * ताधे चेव सव्वासु किट्टीसु पदेसग्गमुवसामेदि गुणसेढीए । २८७. तक्काले चेव सव्वासु किट्टीसु द्विदपदेसग्गमुवसामेदि । तं कधमुवसामेदि ? गुणसेढीए । समयं पडि असंखेज्जगुणाए सेढीए किट्टीणं पदेसग्गमुवसामेदि त्ति वुत्तं होदि । तं जहा-पढमसमए ताव सव्वासि किट्टीणं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण भागलद्धमत्तं पदेसग्गमुवसामेदि । पुणो विदियसमयम्मि सव्वकिट्टीणं पदेसग्गं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण भागलद्धमत्तमुवसामेमाणो पढमसमयम्मि उवसामिदपदेसग्गादो असंखेज्जगुणं पदेसग्गमुवसामेदि ति । कुदो एवं चेव ? परिणामपाहम्मादो। एवं सव्वत्थ गुणसेढिकमेणुवसामेदि त्ति जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमयो त्ति । संपहि है । जिस प्रकार मिथ्यात्वके स्पर्धक सम्यक्त्वरूपसे उदयको प्राप्त होते हुए अपने स्वरूपको छोड़कर अनन्तगुणे हीन होकर उदयमें प्रवेश करते हैं तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके स्पर्धक मिथ्यात्वरूपसे उदयको प्राप्त होते हुए अपने स्वरूपको छोड़कर अनन्तगुणे होकर उदयको प्राप्त होते हैं और इसमें कोई विरोध नहीं है इसी प्रकार यहाँपर भी उपरिम और अधस्तन असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियाँ मध्यम कृष्टिरूपसे वेदी जाती हैं, इसलिए कुछ निषिद्ध नहीं है। अब उसी समय कृष्टियोंकी उपशामना विधिका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रको कहते हैं * उसी समय सभी कृष्टियोंके प्रदेशपुञ्जको गुणश्रेणिरूपसे उपशमाता है । .$ २८७. उसी समय सभी कृष्टियोंमें स्थित प्रदेशपुञ्जको उपशमाता है । शंका-उसे किस प्रकार उपशमाता है ? समाधान-गुणश्रेणिक्रमसे उपशमाता है । अर्थात् प्रति समय असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कृष्टियों के प्रदेशपुञ्जको उपशमाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यथा-सर्वप्रथम प्रथम समयमें सब कृष्टियोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त हो उतने प्रदेशपुञ्जको उपशमाता है। पुनः दूसरे समयमें सब कृष्टियोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उतने प्रदेशपुञ्जको उपशमाता हुआ प्रथम समयमें उपशमाये गये प्रदेशपुञ्जसे असंख्यातगुणे प्रदेशपुञ्जको उपशमाता है । शंका--यह कैसे जाना जाता है ? समाधान--परिणामोंके माहात्म्यसे जाना जाता है । इस प्रकार सूक्ष्म साम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयको प्राप्त होने तक सर्वत्र गुणश्रेणिके क्रमसे उपशमाता है । अब केवल कृष्टियोंको ही असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे नहीं
SR No.090225
Book TitleKasaypahudam Part 13
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages402
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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