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है उसकी प्रतिपद्यमानस्थान संज्ञा है । उत्पादकस्थान यह इसका दूसरा नाम है । इन दोनों स्थानों में से प्रतिपातस्थान संयमसे गिरते समय होता है और प्रतिपद्यमानस्थान संयमको प्राप्त होने के पहले समय में होता है। इन दोनोंके अतिरिक्त अप्रतिपात- अप्रतिपद्यमानस्थानों को विषय करनेवाले अन्य जितने चारित्रस्थान हैं उनकी लब्धिस्थान संज्ञा है । अथवा जितने चारित्रस्थान हैं उन सबकी लब्धिस्थान संज्ञा है ।
इनमें प्रतिपातस्थान सबसे थोड़े हैं। उनसे प्रतिपद्यमानस्थान असंख्यातगुणे हैं और उनसे लब्धिस्थान- अप्रतिपात - अप्रतिपद्यमानस्थान असंख्यातगुणे हैं । यहाँ सर्वत्र गुणकारका प्रमाण असंख्यात लोक है ।
अथवा प्रतिपातस्थान सबसे थोड़े हैं। उनसे प्रतिपद्यमानस्थान असंख्यातगुणे हैं । उनसे अप्रतिपात-अप्रतिपद्यमानस्थान असंख्यातगुणे हैं और उनसे लब्धिस्थान विशेष अधिक हैं । यहाँ लब्धस्थानों से पूरे चारित्रसम्बन्धी स्थानोंको ग्रहण किया गया है ।
संयमको प्राप्त करनेके अधिकारी पर्याप्त मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज । सबसे जघन्य और सबसे उत्कृष्ट प्रतिपद्यमान संयमस्थान कर्मभूमिज मनुष्योंकेही होते हैं । अकर्मभूमिज मनुष्योंके मध्य के होते हैं। विशेष स्पष्टीकरण मूलमें किया ही है। सबसे उत्कृष्ट चारित्रलब्धिस्थान वीतरागके होता है । वह एक ही प्रकारका होता है, क्योंकि कषायके तारतम्यके अनुसार अन्य संयमस्थानों में प्राप्त तारतम्य के समान इसमें तारतम्य उपलब्ध नहीं होता, इसलिए वह उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, संयोगकेवली जिन और आयोगकेवली जिन इन सबके एक ही प्रकारका होता है। इस विषयको शंका-समाधान द्वारा मूलमें इस प्रकार स्पष्ट किया गया है
'एसा उवसंतकसायभयवंतये जहण्णा होदु, खीणकसाय-सजोगि- अजोगीसु च उकसिया होड, खइयद्धिपाहम्मादो त्ति णासंकणिज्जं खोणोवसंतकसाए कसायाभावेण अवट्ठिदसंजमपरिणामेसु जहाक्खा दविहारशुद्धिसंजदस्स भेदाणुवलंभादो ।'
शंका —यह उपशान्तकषाय भगवन्तके जघन्य होओ तथा क्षीणकषाय, सयोगिकेवली और अयोगिकेवलीके क्षायिकलब्धि के माहात्म्यवश उत्कृष्ट होओ ?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि क्षीणकषाय और उपशान्तकषाय जीवोंमें कषायका अभाव होनेसे अवस्थित संयमपरिणाम होता है, इसलिए यथाख्यातविहारशुद्धिसंयम में भेद नहीं उपब्ध होता ।
अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषायोंके उदद्याभावरूप उपपशमके होनेपर तथा संज्वलनचतुष्क और नौ नोकषायोंके देशघाति स्पर्धकोंके उदय होनेपर चारित्रलब्धिकी प्राप्ति होती है, इसलिए सकलसंयमरूप चारित्रलब्धि क्षायोपशमिक है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । १४ चारित्र मोहनीय उपशामना
चारित्रमोहनीय उपशामना यह जयधवला के अनुसार चौदहवाँ अर्थाधिकार है । इसमें आठ सूत्रगाथाऐं निबद्ध हैं। उनमें 'उवसामणा कदिविधा' यह पहली सूत्रगाथा है । इसमें तीन अर्थ निबद्ध हैं - १. उपशामना कितने प्रकारकी है ? इस द्वारा प्रशस्तोपशामना और अप्रशस्तोपशामना आदि रूपसे उपशामनाके भेदोंका सूचन किया गया है । २. किस किस कर्मकी उपशामना होती है ? इस द्वारा क्या सभी कर्मोंकी उपशामना सम्भव