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________________ विरहितम् ] दुःषमासङ्घस्तोत्रम् | ( ३७३ ) वंदे - मंत- अभिधुणंत - पूयंत इंत - जंतेहिं । खयरसुरेहि य रहिआ पुण्णि तिहिमहामह करेहिं ॥ २१ ॥ ॥२२॥ ॥२३॥ तय जोयणदहसुच्चा विक्खंभायामसमदस सहस्सुच्चा | झल्लरिनिभा रइकरा रयणमया विदिसिदीवंते सि चउह दिसासुं जोयलक्खमि जंबुदीवसमा । अ रायहाणीसु सक्कीसाणग्गमहिसीणं विमलमणिसालवणयाण ताण मज्झे पुढो जिणाययणा । निणपडिमा पुग्वमिवेह अणुवमा परमरमणिज्जा ॥ २४ ॥ इय वीसं बावण्णं य जिणहरे गिरिसिरेसु संधुणिमो । इंदाण रायहाणीसु बत्तीसं सोलसय वंदे ॥२५॥ [ ११४ ] सर्वजिनचतुर्विधदुः षमासङ्घस्तोत्रम् । वंदित सिरि उहाइ जिण वट्टमाण चउवीस । आणायकालति विहरमाण जिण वीस दुरिअविहंडन पुंडरीअ - गोयमपमुह नमामि । चउदस सय बावन्नजुअ जिणगणहर सिवगामि उसभसेण अइमुत्तमुह वंदउ लक्खडवीस | सहसड चित्तचरितजुअ जिणकरदिक्खिन सीस ॥३॥ भीचंद बालवर जिणसमणी नमी भव्व ! | लक्ख च चत्त छ चत सहसा चउ सय सव्व Jain Education International For Personal & Private Use Only ॥१॥ ॥२॥ 11811 www.jainelibrary.org
SR No.090206
Book TitleJain Stotra Sandohe Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChaturvijay
PublisherSarabhai Manilal Nawab
Publication Year1932
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Devotion, & Worship
File Size8 MB
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