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जैनस्तोत्रसन्दोहे
[ १०६ ] श्रीमेरुनंदनोपाध्यायविरचितं श्री सीमन्धरजिनस्तवनम् ।
[ श्रीमेरुनन्दनो
अतिरसहरिसरसेण विहसियलोयणमणवयणु । fe भाविनियसामि सिरिसीमंधरु जिणरयणु ॥ १ ॥ जो कप्पूरदले हिं निम्म निम्मलु जिणभवणु । जो नियपायबलेर्हि हारावर चंचल पवणु ॥ २ ॥ ससहरकिरण करेण धरवि जो य हिंडइ गयणि । अह नियसत्तिवसेण करइ दिवस फेडिवि स्यणि ॥ ३ ॥ विहु सो व समत्थु न हु तुह गुणगणसंकलणि । कवणमत्त नीसत्तु हूउं मूरषसिरि मउडमणि ॥ ४ ॥ तहवि हू भत्तिभरेण तर लिउ विरचिसु संथवणु । जिणि कारण जिणभत्ति वंछिउं साहइ नवि कवणु ? ||५|| भास - तं जंबुयदीवह मंडणउ गिरिवरमेरुपवित्त
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ततसु निवसइ जो पुब्वदिसि महाविदेहु सुखित्तु । ततसु विसिट्ठ अट्ठमविजउ पुक्खलवइ इय नामि त तहं विहरइ किरि भुवणगुरो सिरि सीमंधर सामि || ६ || तणवण्णत पंचसयधणुहपमाणसरीरु
त चउतीस अइसयसहिउ सायर जेम गंभीरु ।
तपइदिणु पयपंक लुलियचउविहदेव निकाउ तण्ण a जे पिक्खहिं नयणि सीमंधरु जिणराउ ||७||
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