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________________ श्रद्धान कर रहे थे और इसी विषापहारस्तोत्र रूप भक्ति के प्रभाव से पुत्र का विष भी दूर हो गया था । तुंगात्फलं यत्तदकिंचनाच्च प्राप्यं समृद्धान् धनेश्वरादेः । निरम्भसोप्युच्चतमादिवाद्रेः नैकापि निर्याति धुनी पयोधेः॥' एकीभावस्तोत्र श्रीवादिराज द्रविड़ ऋषिसंघ के आचार्य थे। ये उच्च कोटि के दार्शनिक तथा महाकवि होने के साथ संस्कृत महाकाव्य के प्रणेता भी कहे गये हैं। इनकी बुद्धिरूपी गाय ने जीवन पर्यन्त शुष्क तर्करूपी बास खाकर काव्यरूपी दुग्ध से सहदय मानवीं को तृप्त किया है, ऐसा साहित्यकारों द्वारा इनकी अभिशंसा में कहा गया है। 'श्रीवादिराजसूरि' (आचार्य) के विषय में एक कथा प्रचलित है कि इन्हें कुष्ठरोग साधुदशा में ही हो गया था। एक बार राजा की सभा में इस रोग की चर्चा हुई, तो इनके एक परम भक्त ने अपने गुरु की निन्दा के भय से झूठ ही कह दिया कि उन्हें कोई रोग नहीं है, इस पर वाद-विवाद हुआ और अन्त में राजा ने स्वयं ही परीक्षा करने का निश्चय किया। वह भक्त घबराया हुआ वादिराज सूरि के पास शीघ्र पहुँचा और समस्त घटना मुनिराज को कह सुनायी। गुरुवर ने भक्त को आश्वासन देते हुए कहा- " धर्म के प्रसाद से सब ठीक होगा, चिन्ता मत करो। " अनन्तर एकीभावस्तोत्र की रचना कर अपनी व्याधि दूर की। इस स्तोत्र के चमत्कार को देख राजा बहुत प्रभावित हुआ। ई.सन् 11वीं शती के मध्य में आपने मद्रास प्रान्त को गौरवशाली बनाया था । एकीभावस्तोत्र भक्तिरसपूर्ण आध्यात्मिक स्तुति है जिसमें मन्द्राक्रान्ता छन्द में 24 श्लोक, शार्दूलविक्रीडित छन्द में एक श्लोक और स्वागताच्छन्द में अन्त का एक श्लोक, इस प्रकार कुल 26 श्लोक संस्कृत में रचे गये हैं। इस स्तोत्र के भक्तिरसपूर्ण नवीन कल्पना के साकार उदाहण देखिए प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्यपुण्यात् पृथ्वीचकं कनकमयतां देव! निन्ये त्वयेदम् । ध्यानद्वारं मम रुचिकरं स्वान्तगेहं प्रविष्टः तत् किं चित्रं जिन! वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोषि । यहाँ श्लेष अलंकार के द्वारा अतिशयपूर्ण कथन किया गया है। 1. यही पुस्तक, पृ. क्रमशः 147, 150 151 2. डॉ. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य तीर्थकर महावीर और उनकी आधार्य परम्परा भाग-3, पृ. 88 3. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-५, प्र. - विद्वत्परिषद् सागर, पृ. 940 100 जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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