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________________ 1 पाटक बहुत हास्य करते हैं, कई जन दुःखी होते हैं और कई हर्षित होते हैं । रेखाचित्रों के द्वारा कहानी भी लिखी जाती है, रेखाचित्रों के द्वारा भाषा का ज्ञान होता है। सारांश यह है कि रेखाचित्र भी एक प्रकार की मूर्ति है जिसका प्रभाव अपना हृदय जानता है। लोक में रेखाचित्रों के द्वारा शिक्षण, गणित, भूगोल आदि विषयों का ज्ञान हो जाता है। इतिहास के आलोक में मूर्ति का महत्त्व ज्ञान का विकास गुरु-शिष्य की परम्परा से होता है। जिस प्रकार वंश का प्रवाह पिता पुत्र की परम्परा से अक्षुण्ण रहता है। योग्य गुरु के बिना शिष्य के ज्ञान का विकास नहीं होता। साक्षात् गुरु के शिक्षा प्रदान करने पर तो शिष्य शिक्षित होता ही है, पर आश्चर्य यह है कि गुरु की प्रत्यक्ष संगति न भी हो, अपितु गुरु की केवल मूर्ति हो अथवा मात्र स्मृति हो तो भी शिष्य को गुरुभक्ति के बल पर अभीष्ट विषय की शिक्षा प्राप्त हो जाती है। भारत के प्राचीन इतिहास में इस विषय का एक ज्वलन्त उदाहरण पाठकों की आश्चर्यान्वित कर देता है। एकलव्य हिरण्यधनु का पुत्र था, हिरण्यधनु निषादों का सरदार था। धनुर्विद्या की शिक्षा लेने में उत्साही एकलव्य द्रोणाचार्य के पास गया । उस समय द्रोणाचार्य कौरवों- पाण्डवों को धनुर्विद्या का अभ्यास करा रहे थे। यद्यपि द्रोणाचार्य ने उसे शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया, इसलिए उसने जंगल में एक कुटी बनायी। उसमें द्रोणाचार्य की सुन्दर मूर्ति मिट्टी की बनाकर स्थापित की। श्रद्धा के साथ उसका पूजन किया और आत्मबल से धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। एक दिन द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को धनुर्विद्या का व्यावहारिक ज्ञान कराने के लिए जंगल में यत्र-तत्र विचरण कर रहे थे। द्रोणाचार्य का अनुचर उनके कुत्ते के साथ गुरुजी की खोज करता हुआ अकस्मात् एकलव्य के स्थान पर प्राप्त हुआ। उस समय तेजी से एकलव्य धनुर्विद्या के अभ्यास में मग्न था । द्रोणाचार्य के कुक्कुर ( कुत्ते) ने एकलव्य का भयंकर शरीर देखकर तेजी के साथ भौंकना शुरू कर दिया। इससे एकलव्य का एकाग्र चित्त विचलित हो गया। वह कुत्ते को जान से मारना भी नहीं चाहता था और कोई द्रोह भी नहीं करना चाहता था। इसलिए एकलव्य ने कुत्ते का भौंकना मात्र रोकने के लिए उसके मुख में क्रमशः सात बाण चतुराई से छोड़ दिये। उसके मुख में सात बाण भर जाने से भौंकना बन्द हो गया और कुत्ता जरा भी घायल नहीं हुआ । एकलव्य की परीक्षा का महान् अवसर था । कुत्ता अनुचर के साथ दौड़ता हुआ वहाँ आया जहाँ द्रोणाचार्य धनुर्विद्या की शिक्षा कौरवों-पाण्डवों को दे रहे थे। गुरु के पूँछने पर अनुचर ने यह सम्पूर्ण वृत्तान्त कह सुनाया। सभी व्यक्ति अति उत्कण्ठापूर्वक अनुचर को साथ लेकर एकलव्य की 80 जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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