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________________ 5. पशु-पक्षी आदि प्राणियों के शिकार का त्याग, 6. चोरी या अपहरण आदि की आदत का त्याग, 7. परस्त्री-सेवन का त्याग-इन सप्त व्यसनों के अथवा सप्त महापापों के सेवन का त्याग करना भी धर्म है। इस प्रकार वस्तु का स्वभाव रूप आत्मगुणों का चिन्तन करना, उत्तम क्षमा आदि दस धो का चिन्तन एवं पालन, सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र रूप रत्नत्रय धर्म का ध्यान एवं पालन, अहिंसा आदि पंचव्रतों का पालन, मद्यत्याग आदि आठ मूल-गुणों का पालन, घूतक्रीड़ा आदि सात व्यसन (महापाप) का त्याग पूर्वक चिन्तन, इन सब धर्मों का पालन, चिन्तन एवं अर्चन करना उक्त नवदेवताओं में छठे धर्म देवता का आराधन या अर्चन कहा जाता है। 7. आगम (शास्त्र) देवता का अर्चन नव देवताओं में आगम सातवाँ देवता माना गया है कारण कि केवलज्ञानी अर्हन्त के उपदेश का सार इसमें लिखा गया है, समस्त प्राणियों के कल्याण का मार्ग दर्शाने वाला है, संशय, विपरीतता और अज्ञानता या विमोह दोष से रहित है। इसके दो प्रकार हैं-1. भार आगम, 2. दव्य आगम जो आत्मज्ञान स्वरूप है. जिसकी रचना तीर्थंकरों के उपदेश के अनुसार, उनके विशेष ज्ञानधारी गणधरों तथा उपगणघरों द्वारा आत्मा में की गयी है, जो आचारांग आदि बारह अंगों (विभागों) में विभक्त है तथा जो उत्पाद पूर्व, ज्ञान प्रवाद पूर्व आदि चौदह पूर्व भेदों में विभाजित है, यह सब रचना आत्मा में ही होती है, इसलिए यह भाव आगम या भाव श्रुतज्ञान कहा जाता है। जो आत्मा का ज्ञानगुणस्वरूप होता है। यही भाव आगम या भावश्रुतज्ञान, गणधर के शिष्य-प्रशिष्य अथवा आचार्यो-महषियों द्वारा जब भाषात्मक शब्दों के माध्यम से लिखा जाता है, जो प्राकृत संस्कृत अपभ्रंश हिन्दी आदि भाषाओं में निबद्ध होता है, वह ताड़पत्र, ताम्रपत्र, रजतपत्र, पाषाण, काग़ज़ आदि पदार्थों पर लिखा जाता है वह द्रव्य आगम, द्रव्यश्रुत ज्ञान या शब्द श्रुतज्ञान कहा जाता है। दोनों प्रकार के आगम को सामान्य रूप से कृतान्त, सिद्धान्त, ग्रन्थ, राद्धान्त, शास्त्र, जिनवाणी आदि शब्दों से कहते हैं। इसका विशेष वर्णन, देव शास्त्र गुरु के प्रकरण में किया गया है, वहाँ पर दृष्टिगत कर लेना चाहिए। ___ इन शास्त्रों के स्वाध्याय, अध्ययन, मनन, प्रवचन, प्रश्नोत्तर, उपदेश करने से तथा लिखने से, परामर्श करने से आत्मा में ज्ञान की वृद्धि होती है, ज्ञान के साथ आत्मबल एवं सुख-शान्ति का अनुभव होता है। अतः जीवन में शास्त्र का अर्चन करना भी आवश्यक है। इसी विषय को पण्डितप्रवर श्री आशाधर जो द्वारा स्पष्ट किया गया है 64 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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