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________________ ऊपर जिस धर्म की महिमा का वर्णन किया गया है उस धर्म की परिभाषा को भी जान लेना आवश्यक होता है अतः धर्म की परिभाषा देखिए । संस्कृत व्याकरण के अनुसार धर्म की परिभाषा "यः संसारदुःखतः दूरीकृत्य प्राणिनः अक्षयसुखे धरति स धर्मः” अर्थात्--जो प्राणियों को संसार के जन्म-मरण, क्षुधा, तृषा, रोग, क्रोध, अभिमान आदि दुःखों से निकालकर अक्षय परममुख (मुक्ति सुख) को प्राप्त करा देता है वह सत्यार्थरूप में धर्म कहा जाता है। इसी लक्षण को श्री समन्तभद्र आचार्य ने दर्शाया है ___ "संतारदुःखतः सत्त्वान्यो घरत्युत्तमे सखे-, अर्थात् जो विश्व के प्राणियों को जन्म-मरण, राग, द्वेष, मोह आदि अपार कष्टों से दूर कर मोक्ष के अविनाशी सुख को प्राप्त करा देता है, यह यथार्थ धर्म कहा जाता है। धर्म की विशद परिभाषा धम्मोवत्थसहावो खमादिभावोऽय दसविही धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो।' स्पष्टार्थ-निश्चय नय की दृष्टि से या द्रव्यस्वभाव की दृष्टि से वस्तु के स्वभाव (नित्यगुण) अथवा शुद्ध द्रव्य की प्रकृति को धर्म कहते हैं जैसे इक्षु (गन्ने) का मधुर-रवभाव, अग्नि का उष्ण धर्म, जल की शीतल प्रकृति, नीयू का आम्ल (खट्टा) गुण, इसी प्रकार आत्मा का ज्ञानदर्शन स्वभाव धर्म है, धर्म की यह सामान्य व्याख्या है। इस लक्षण से मानव धर्म की सामान्य परिभाषा तो जान सकता है परन्तु विशेष परिभाषा जानकर अपने कर्तव्य का बोध नहीं कर सकता और न दूसरे को समझा सकता है। ऐसी दशा में दूसरे व्यवहार नय की दृष्टि (विशेष दृष्टि) से धर्म की परिभाषा की जाती है धर्म के विशेष भेद दस होते हैं-(1) उत्तम क्षमा (क्रोध को जीतकर क्षमा या सहनशीलता धारण करना), (2) उत्तम मार्दव (अभिमान का त्याग कर विनय नम्रता धारण करना), (3) उत्तम आर्जय (मायाचार का त्याग कर सरल प्रवृत्ति या निष्कपट आचरण करना), (4) उत्तम शौच (लोभ-तृष्णा का त्याग कर मन, वचन, शरीर को पवित्र रखना), (5) उत्तम सत्य (असत्य का त्याग कर हित, मित, प्रिय वचनों का प्रयोग करना), (6) उत्तम संयम (स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र, कर्ण तथा पन इन छह इन्द्रियों की विषय लालसा को वश में करना तथा मैत्री भाव से प्राणियों 1. कार्तिकेयानुप्रेक्षा : सं. आदिनाथ उपाध्याय, प्र.-राजचन्द्र आश्रम अगास (गुजरात), सन् 197४. पृ. 364, धर्मानुप्रेक्षा पद्य 47B. 62 :: जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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