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________________ सारांश - लोक में चार मंगल हैं - (क) अर्हन्त भगवान मंगल हैं: (ख) सिद्ध परमात्मा मंगल है; (ग) आचार्य, उपाध्याय, साधु महात्मा मंगलमय हैं और (घ) अर्हन्त परमेष्ठी द्वारा कथित धर्म मंगलरूप है । ( 2 ) चत्तारि लोगुत्तमा- अर्हन्ता लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो । सारांश - लोक में चार उत्तम हैं--- (क) लोक में उत्तम अर्हन्त भगवान् हैं। (ख) सिद्ध परमात्मा लोक में उत्तम हैं। (ग) आचार्य, उपाध्याय, साधु महात्मा लोक में उत्तम हैं । (घ) अर्हन्त भगवान द्वारा प्रणीत धर्म लोक में उत्तम है। (3) चत्तारि सरणं पव्वज्जामि - अर्हन्ते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वजामि । I को सारांश-भक्त मानव कहता है कि मैं चार की शरण को प्राप्त होता (क) अर्हन्त भगवान् की शरण को प्राप्त होता हूँ (ख) सिद्ध मकान को प्राप्त होता हूँ, (ग) साधु महात्मा (आचार्य - उपाध्याय साधु-मुनि) की शरण को प्राप्त होता हूँ, (घ) अर्हन्त भगवान् के द्वारा प्रणीत धर्म की शरण को प्राप्त होता हूँ। अर्थात् धर्म की साधना शुद्ध भावपूर्वक करके आत्मकल्याण करता हूँ । धर्म की उपासना के विषय में अन्य प्रमाण धर्म एवं सदा बन्धुः स एव शरणं मम । इह वाऽन्यत्र संसारे इति तं पूजयेऽधुना ॥ सारांश - इस लोक में और परलोक में इस प्राणी का सत्यार्थ धर्म ही सदा आता या मित्र है, वह ही सदा शरण है, इस कारण से हम धर्म की पूजा करते हैं। लोकालोकस्वरूपस्य वक्तृ धर्ममंगलम् । अर्चे वादित्रनिर्घोष - गीतनृत्यैः वनादिभिः ॥ सारांश - मंगलरूप धर्म लोक और अलीक के समस्त पदार्थों का दिग्दर्शन कराने वाला है इसलिए हम वाद्यध्वनि, गीत, नृत्य आदि के द्वारा तथा जल आदि द्रव्यों के द्वारा धर्म का अर्चन करते हैं । उत्तमक्षमवा भास्वान्, सद्धर्मो विष्टपोत्तमः । अनन्तसुखसंस्थानं यज्यतेऽम्भः सुमादिभिः ॥ २ तात्पर्य - उत्तमक्षमा आदि धर्मों से विभूषित, सम्पूर्ण विश्व में उत्तम, अक्षय 1. पूर्वोक्त ज्ञानपीठ पूजांजांले. पू. ४7. ४. सरल जैन विवाह विधि: सं.पं. मोहनलाल शास्त्री जवाहरगंज जबलपुर, सन् 1965 सप्तम संस्करण, पृ. 28 24. 60 जैन पूजा-काव्य एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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