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________________ रक्षा का प्रयास करना प्राणी संयम है।), (7) उत्तम तप (कर्मरूप विकार को या इन्द्रिय विषयों को रोकने के लिए इच्छाओं का त्याग करना तथा पूर्व कथित द्वादश तप का आचरण), (8) उत्तम त्याग (विविध वस्तुओं से मोह-माया छोड़कर परोपकार करना तथा दान का आचरण), (9) उत्तम आकिंचन्य (चौबीस प्रकार के परिग्रहों का त्यागकर शुद्ध चैतन्य आत्मा का ध्यान करना), (10) उत्तम ब्रह्मचर्य (मन-वचन-काय से स्त्री एवं पुरुष सम्बन्धी विषयभोग का त्याग कर शुद्ध आत्मा में रमण करना), इस तरह अन्तर तथा बाह्य धर्मों का पालना। आचार्य के मूल गुणों में पंच आचार-(1) दर्शनाचार (निर्दोष तत्त्व श्रद्धान का आचरण करना तथा कराना), (2) सम्यक् ज्ञानाचार (संशय-विपरीतत्व-मोह इन तीन दोषों से रहित ज्ञान का विकास करना), () सम्यक् चारित्राचार (श्रद्धा एवं ज्ञानपूर्वक यत-संयम का पालन करना), (4) तपाचार (मनसा-वाचा-कर्मणा द्वादश तपों का आचरण करना तथा विषयाभिलाषा का निरोध करना), (5) वीर्याचार (आत्मबल का विकास करना)। आचार्य के मूलगुणों में छह आवश्यक कर्तव्य : (1) सपता या सामायिक (वस्तुओं से राग-द्वेष-मोह-माया-तृष्णा का त्याग कर समता तथा शान्ति को धारण करना), (2) स्तव (चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का कीर्तन तथा चिन्तन करना अथया अर्हन्त सिद्ध परमात्मा का गुण-कीर्तन एवं स्मरण करना), (3) यन्दना (अर्हन्त सिद्ध परमात्मा के गुणों का स्मरण कीर्तन करते हुए करबद्ध, मस्तक नम्रीभूत कर प्रणाम सविनय करना), (4) प्रतिक्रमण (अज्ञानवश साधना में कोई त्रुटि (ग़लती) हो जाने पर अपनी निन्दा करते हुए मनसा, वाचा, कर्मणा त्रुटि का शोधन करना), (5) नाम स्थापना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा, अयोग्य वस्तुओं का मन, वचन, काय से त्याग करना, (6) कायोत्सर्ग-पंच परमेष्ठी की वन्दना स्तुति आदि के समय 27 स्वासोच्छ्वास काल प्रमाण तक मौनपूर्वक स्थिरता के साथ नववार णमोकार मंत्र का जाप करना)। ये छह आवश्यक कर्तव्य हैं जिनका पालन साधु करते हैं। आचार्य के मुख्यगुणों में तीन गुप्ति (आत्मरक्षा) : (1) मनोगुप्ति (अधर्म से आत्मा की सुरक्षा के लिए मन को जीतना), (2) वचनगुप्ति (अनीति से आत्मा की सुरक्षा के हेतु वचन को वश में करना अर्थात् मौनव्रत धारण करना), (3) कायगुप्ति (अन्याय तथा व्यसनों से आत्मा की सुरक्षा के लिए शरीर-क्रिया पर विजय प्राप्त करना)। इन तीन गुप्तियों का पालन आचार्य स्वयं करते और अन्य साधुओं से कराते हैं। 4. उपाध्याय परमेष्ठी की परिभाषा साधु संघ में इनका पद उपाध्याय इसलिए होता है कि ये बहुत श्रुतज्ञानी होते हैं, संघस्थ मुनियों आदि त्यागियों को सिद्धान्त न्याय व्याकरण आदि शास्त्रों का जैन पूजा-काव्य का उद्घन और विकास :: 55
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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