SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रणे राजकुले बनी, जले दुर्गे गजे हरौ। श्मशाने विपिने घोरे, स्मृतौ रक्षति मानयम् ॥' क्रमशः पद्यों का सारांश-परमात्मा के गुणों का स्तवन करनेवाला, सर्वश्रेष्ठ इस ऋषिमण्डल नाम के महास्तोत्र के पाठ करने से, स्मरण करने से एवं जाप करने से मानव समस्त दोषों से मुक्त हो जाता है। भक्तिभाव से विनम्र जो मानव प्रतिदिन प्रातःकाल ऋषि मण्डल स्तोत्र का एक सौ आठ बार पाठ करस हैं, उनके चेह में व्याधि नहीं होती हैं। उनके लिए समस्त सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं। भक्तिरस में ओत-प्रोत जो मानव प्रतिदिन प्रातःकाल आठ माह तक, महाप्रभावपूर्ण इस ऋषिमण्डल स्तोत्र का पाठ करते हैं, वे साक्षात् अर्हन्तभगवान् के प्रतिबिम्ब का दर्शन करते हैं। अर्हन्तभगवान् के प्रतिबिम्ब का साक्षात् दर्शन करने पर वे मानव सातवें भव (पर्याय) में निश्चय से परम आनन्दरूपी सम्पत्ति के साथ अजर-अमर मुक्ति पद को प्राप्त करते हैं। ___घोररण में, राजकुल में, अग्निकृत उपद्रव में, जलकृत उपद्रव में, दुर्ग में, गज और सिंह के उपद्रव में, श्मशान में एवं भयंकर जंगल में स्तोत्र के स्मरण करने पर ऋषिमण्डल स्तोत्र मानव की सुरक्षा करता है। समन्तभद्राचार्यकृत बृहत्स्वयंभूस्तोत्र में पूजा या गुणकीर्तन का मूल्यांकन : न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ! विवान्त वैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः, पुनातु चित्तं दुरितां जनेभ्यः ॥ सार सौन्दर्य-हे जिनेन्द्रदेव : आप में किसी वस्तु के प्रति राग 'भाव नहीं है इसलिए आप पूजन से प्रसन्न नहीं होते और किसी के प्रति द्वेष (वैरभाव) भाव नहीं है इसलिए आप निन्दा से क्रोधित नहीं होते हैं अर्थात् प्रशंसा तथा निन्दा के तपय पी समताभाव को धारण करते हैं तो भी आपके पवित्र गुणों का स्मरण या पूजन, हम सब मानवों के या प्राणियों के पापरूपी कालिमा को दूर कर चित को पवित्र करता है। यह आश्चर्य की बाता है। पूज्यपाद आचार्य द्वारा समाधिभक्ति में कथित जिनेन्द्र बन्दन का मूल्यांकन : जन्मजन्मकृतं पापं, जन्यकोटिसमार्जितम् । जन्ममृत्युजरामूलं, हन्यते जिनवन्दनात् ॥ सारांश जन्म-जन्म में किया गया पाप तथा कोटिजन्म में उपार्जित, जन्म-जरा 1. हुम्बज श्रमण सिद्धान्त पाशालि, पृ. 73-74 | .. तवैव, पृ. ।। 56 :: जैन पूजा काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy