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________________ करते हुए, कल्याण-मन्दिर स्तोत्र की रचना की। एकीभावस्तोत्र में भक्तिगंगा का मूल्यांकन : पूर्व समय में भारत के जयसिंहपुर (नगर) के एक भीषण वन में तपस्या करते हुए आचार्य वादिराज की कुष्ट का रोग हो गया। तपस्या के प्रभाव से, वीतराग परमात्मा का गुणार्चन करते हुए आचार्य ने एकीभावस्तोत्र' की सर्जना की और पवित्र आध्यात्मिक दवा के सेवन से उनका भयंकर कुष्ट क्षीण हो गया। एकीभाव स्तोत्र के चतुर्थ पद्य से यह चमत्कार सिद्ध होता है, चतुर्थ पद्य का सारांश : जब आपके स्वर्ग लोक से आगमन के छह मास पूर्व से ही रत्नों को वार्षा होने के कारण यह पृथ्वी सुवर्णमय हो गयी। अब तो आप हमारे मनमन्दिर में ही विराजमान हो चुके हैं, आपके प्रभाव से हमारा यह शरीर सवर्ण जैसी कान्तिवाला हो जाए तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है। अर्थात् एकीभाव-स्तोत्र के माध्यम से परमात्मा के गुणों का कीर्तन करने से आचार्य वादिराज का शरीर रोगरहित, सुवर्ण के समान कान्तिवाला सुन्दर हो गया था। विषापहार स्तोत्र का मूल्यांकन : संस्कृति के संरक्षक महाकवि धनंजय के इकलौते पुत्र को एक समय सर्प ने इस लिया। उस समय महाकवि भगवत्पूजन में तल्लीन थे। पुत्र को निर्विष करने के लिए बहुत उपाय किये गये, पर सफलता प्राप्त नहीं हुई। अन्त में माता ने पुत्र को मन्दिर के द्वार पर रख दिया, रुदन तो कर ही रही थी। पूजन समाप्त करने के पश्चात महाकवि ने विषापहार स्तोत्र का सृजन करते हुए पुनः परमात्मा वीतराग देव के गुणों का कीर्तन किया। उसके प्रभाव से महाकनि ने पुत्र को हाथ पकड़कर उठा दिया ! हँसते हुए पुत्र, माता और पिता ने (महाकवि ने) भगवान के समक्ष पुनः स्तुति करना प्रारम्भ कर दिया। विषापहार स्तोत्र के अन्त में संस्कृतज्ञ महाकवि धनंजय सत्यार्थ भक्ति का परिणाम दशाते हैं : वितरति विहिता यथाकथंचित्, जिनविनताय मनीषितानि भक्तिः । त्वयिनुतिविषया पुनर्विशेषाद्, दिशति सुखानि यशो धनं जयं च ॥' भावसौन्दर्य -हे भगवन् ! जिस किसी प्रकार की गयी भगवद्भक्ति, नम्र मानव के लिए इच्छित फल को प्रदान करती है। पुनः आपके विषय में की गयो स्तुति मूलक भक्ति विशेष रूप से सुख, यश, धन-सम्पदा और जीवन में विजय को प्रदान करती है। इस स्तोत्र में समस्त पद्य भक्तिरस और विविध अलंकारों से ओतप्रांत है जो 'भक्ति का मूल्यांकन करते हैं। 1. ज्ञानपोट पूतांजाल, पृ. 514 | जैन पूजा-काव्यों का महत्त्व :: 547
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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