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________________ 1 वैदिक साहित्य के यति और व्रात्य ऋग्वेद में मुनियों के अतिरिक्त यतियों का भी बहुतायत से उल्लेख हुआ है। ये यति श्रमण परम्परा के ही साधु हैं क्योंकि इनके प्रति प्रारम्भ में तो सद्भाव मिलता है किन्तु पीछे वैदिक परम्परा में इनके प्रति रोष दिखाई पड़ता है। भगवतगीता में ऋषि, मुनि और यति का स्वरूप समझाकर उन्हें समान रूप से योग में प्रवृत्त माना हैं। इनमें से मुनि इन्दिराविजेता और एन में संरणी इण भय व क्रोधरहित, मोक्षमार्ग के पथिक बताये गये हैं। और यति को कषाय-रहित, संयतचित्त व वीतरागी कहा है। अथर्ववेद में व्रात्यों का वर्णन आया है। सामवेद में उन्हें व्रात्यस्तोम-विधि द्वारा शुद्ध कर वैदिक परम्परा में सम्मिलित करने का भी वर्णन है क्योंकि ये लोग वैदिक पद्धति से अपरिचित थे और प्राकृत बोलते थे। मनुस्मृति में भी लिच्छिवि आदि क्षत्रिय जातियों को ब्रात्यों में परिगणित किया है। इन सब उल्लेखों पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि ये व्रात्य भी श्रमण परम्परा के साधु व गृहस्थ थे जो वेदविरोधी होने से वैदिक अनुयायियों के कोपभाजन बने हुए थे। प्रात्यशब्द की निष्पत्ति व्रत शब्द से हुई हैं । जैनधर्म में अहिंसा आदि नियमों को व्रत कहते हैं । इनके एकदेश पालक श्रावक को देश विरत या अणुव्रती और पूर्णरूप से पालक मुनि को महाव्रती कहते हैं। जो लोग विधिपूर्वक व्रतग्रहण नहीं करते, तथापि धर्म में श्रद्धा रखते हैं वे अविरत सम्यग्दृष्टि हैं। इसी प्रकार के व्रतधारी व्रात्य हैं, इसीलिए उपनिषदों में इनकी बहुत प्रशंसा की गयी है।' 1 महान् दार्शनिक और भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधा-कृष्णन् ने भी यजुर्वेद में उल्लिखित ऋषभदेव, अजितनाथ एवं अरिष्टनेमि का विश्लेषण किया है और ऋषभदेव को जैनधर्म का आद्य संस्थापक स्वीकार किया है ।" इन ही ऋषभदेव के युग से जैन पूजा-पद्धति का श्रीगणेश हुआ । 'जब ऋषभदेव राज्यभार का दायित्व सँभालने योग्य हुए तो महाराज नाभिराज ने उनका राज्याभिषेक कर दिया। यथा 1. देखिए, (अ) तैत्तरीय संहिता 2,4,9 6,4,75. (ख) ताण्ड्य ब्राह्मण, 14,2,28,18,19. 2. देखिए, भगवद्गीता, 57 18 3. 1, 5/26, 8/11 4. देखिए प्रश्नोपनिषद्, 2- 11 5. देखिए, भारतीय दर्शन, जिल्द 1, प्र. राजपाल एण्ड सन्स, देहली, सन् 1969, पृ. 207 जैन पूजा - काव्य का उद्भव और विकास : 33
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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