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________________ श्रद्धा के बल पर करता है। अन्तरंग संस्कृति जीवन में व्याप्त रहती है और बहिरंग संस्कृति कुल परम्परा, संस्कार, तीर्थक्षेत्र, मन्दिर, मूर्ति और व्यवहार में विकसित होती है। डॉ. सर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर के संस्कृत विभागीय भूतपूर्व अध्यक्षडॉ. रामजो उपाध्याय के मतानुसार-"मानव-जीवन की कला तथा व्यक्तित्व का बिकास ही संस्कृति है।" भारतवर्ष अनेक धर्म, दर्शन एवं संस्कृतियों का संगम है, इसमें वैदिक, जैन, बौद्ध-इन प्रमुख संस्कृतियों का विकास हुआ है और वर्तमान में हो रहा है, मस्लिम-क्रिश्चियन संस्कृति का भी इस युग में विकास हो रहा है। इसलिए भारत में मुख्यतः वैदिक, जैन एवं बौद्ध संस्कृति के अमर स्मारक के रूप में तीर्थक्षेत्र अपना प्रभावक अस्तित्व दिखला रहे हैं। जैन तीर्थों के प्रकार जैन दर्शन की दृष्टि से जैन तीर्घ तीन प्रकार के दृष्टिगोचर होते हैं(1) निर्वाणतीर्थ क्षेत्र, (2) सिद्धतीर्थ क्षेत्र, (3) अतिशय तीर्थ क्षेत्र । (1) निर्वाण क्षेत्र की परिभाषा और भेद-जिस स्थान से श्री ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकरों ने परम ध्यान साधनों के माध्यम से निर्वाणपद (मुक्ति) को प्राप्त किया, 'अतएव जहाँ पर देवों तथा मानवों द्वारा निर्माण कल्याणक महोत्सव किया गया हो, के निवाण तीर्थ क्षेत्र' कहे जाते हैं, यथा-कैलाश पर्वत, सम्मेदशिखर, गिरनार, चप्पापुर, पावापुर। (2) सिद्ध क्षेत्र की परिभाषा-जिस स्थान से तीर्थंकरों से भिन्न महापुरुषों ने, मुनीश्वरों, आचार्यों एवं उपाध्यायों ने योग-साधना के माध्यम से मुक्ति परमात्पपद) पद को प्राप्त किया है वे 'सिद्ध क्षेत्र' कहे जाते हैं। यथा-चूलगिरि बड़वानो), मुंगीगिरि, सिद्धवरकूट, द्रोणगिरि, रेशंटीगिरि, कुन्थलगिरि आदि। यद्यपि निर्वाण क्षेत्रों से भी मुनीश्वरों आदि ने परमात्म पद (सिद्ध पद) प्राप्त किया है तथापि उन क्षेत्रों में निर्वाण तीर्थ क्षेत्र को ही मुख्यता है। (3) अतिशय तीर्थ क्षेत्र की परिभाषा-जिन स्थानों में तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, दीक्षा एवं ज्ञान कल्याणक-महोत्सब हुए हों, महापुरुषों ने ध्यान-साधना की हो, शास्त्रों का निर्माण किया गया हो, अथवा आत्य-साधना के कारण अन्य कोई अतिशय या चमत्कार हुआ हो वे 'अतिशय तीर्घ क्षेत्र' कहे जाते हैं यथा हस्तिनापुर, अयोध्या इत्यादि। जैन तीर्थों ने भारतीय संस्कृति के प्रत्येक अंग को प्रभावित किया है। सुविधा की दृष्टि से उस चोगदान का विभाजन निम्न शीर्षकों में सम्भाव्य है-(1) शैक्षणिक योगदान, (2; दार्शनिक तथा बारित्रिक योगदान, (५) साहित्यिक योगदान, रन पूजा-काव्यों में तीर्थक्षेत्र :: 271
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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