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________________ सप्तम अध्याय जैन पूजा-काव्यों में पर्व भारतीय संस्कृति को जीवित एवं सुरक्षित रखने के लिए भारत के अन्य धर्मों के पर्यों की परम्परा के समान जैन पर्यों की परम्परा भी अपनी विशेष सत्ता स्थापित करती है। जो मानव समाज को जीवनशुद्धि एवं आत्महित के लिए समय-समय पर प्रेरणा देती रहती हैं। 'पर्व' शब्द का अर्थ पर्व का अर्थ मुख्य विशेष उत्सव हाता है, यह प्रथम अर्थ हैं। पर्व का पर्याववाचक शब्द पावन भी है जिसका अर्थ पवित्र दिवस होता है अर्थात् यह मुख्य (विशेष) या पवित्र दिवस, कि जिस पावन वेला में मानव, आत्मविश्वास, ज्ञान एवं सदाचरण के द्वारा आत्मशुद्धि वा आत्मकल्याण करता है। सदैव के लिए संयम या नियम ग्रहण करता है तथा अन्च दिनों की अपेक्षा पर्व के दिवस में विशेष नैतिक, धार्मिक, सामायिक, स्वाध्याय, देवार्चन, लुति आदि अनुष्ठान करता है। "तिधि भदं सणेपर्व, वमनत्रछदऽध्वनि"। अर्थात--अष्टमी, चतुर्दशी, अमावास्या अमावस्या. पूर्णिमा आदि विशेष तिथियों को तथा उत्तर को पर्व कहते हैं।' 'पर्व' का दूसरा अर्थ गाँट भी है जैसे गन्न की नीरस गाँठ सरस गन्ने को उत्पन्न करती है उसी प्रकार धार्मिक पर्व विषयरूपो रस से हीन होते हुए भी आत्मरस को उत्पन्न करते हैं। ____ "ग्रन्थिना पर्वपरुषी, गुन्द्रस्तेजनकः शरः" । अधांत--ग्रन्थि, पर्वन, परुप ये तीन गाँट के नाम हैं। - - !. अमरासंह विरचित अमरकोश · सं. पं. रामस्वरूप, प्र. -श्रीवकोश्वर प्रेस बदई. पृ. 249. श्लोक __ वि. सं. 19121 ५. तथैव, . 95. कॉक 2। 256 :: जैन पूजा काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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