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________________ वैसरी छन्द, सोरठा और चौपाई छन्दों का प्रयोग किया गया है। काव्यों में अलंकारों के रमणीय प्रयोग से शान्तरस को वर्षा होती है। इसमें कुल 60 काव्य हैं। उदाहरणार्थ रत्नत्रय पूजा का प्रथम स्थापना काव्य-- चहुँगति-फनि विषहरणमणि, दुख-पावक-जलधार। शिवसुखसुधासरोवरी, सम्यकत्रची निहार।' सम्यग्दर्शन की परिभाषा (संक्षिप्त) आप आप निहचै लखे, तत्त्वप्रीति व्यवहार। रहित दोष पच्चीस हैं, सहित अप्टगुण सार॥" काव्य सौन्दर्य-इस दोहा में सम्यग्दर्शन की संक्षेप से दो परिभाषा की गयी हैं-(1) आत्मा में स्वयं दृढ़ श्रद्धा करना अन्तरंग सम्यग्दर्शन है। (2) जीव, अजीव, आस्रय, बन्ध, संवर, निर्जरा, मुक्ति-इन सात तत्त्वों में दृढ़ श्रद्धा करना द्वितीय बहिरंग सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इन दानां को ही क्रमशः निश्चयसम्यग्दर्शन तथा व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं। दोनों ही सम्यग्दर्शनों में पच्चीस दोष नहीं होना चाहिए अर्धात सभ्यग्दर्शन को विशद्ध होना आवश्यक है, वही आत्मा का कल्याण करनेवाला एवं मुक्ति का कारण है। इसी प्रकार उम सभ्यग्दर्शन के आठ अंग होना भी आवश्यक है। इनका वर्णन संस्कृत पूजा में किया गया है। सम्यक् ज्ञान की परिभाषा पंचभेद जाके प्रगट, जैव प्रकाशनभान। मोहतपनहरचन्द्रमा, साई सम्यक् ज्ञान॥' सम्यक् ज्ञान के भेद-दोष और अंग आप आप जाने नियत, ग्रन्थ पठन व्यवहार। संशयविभ्रममोहविन, अष्ट अंग गुणकार ॥' काव्यसार-आत्मा द्वारा स्वयं स्वानुभव करना अन्तरंग (निश्चय सम्यग्ज्ञान कहा जाता है और शब्दात्मक ग्रन्थ का अनुभव [पठन करना बहिरंग (व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहा जाता हैं। संशय (सन्देह करना), विभ्रम (विपरीत जानना), माह (पदार्थ का अस्पष्ट ज्ञान)-ये तीन दांप ज्ञान का दूषित करनेवाले हैं। तम्यग्ज्ञान के जाट अंग संस्कृत रत्नत्रय पूजा में कह जा चुके हैं। 1. ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृ. 325 2. तथैव, १ 327 ३. नर्थव, पृ. 328 4. तथैव, पृ. १३0 232 :. जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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