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________________ पंचम अध्याय जैन पूजा - काव्यों में रत्नत्रय प्रथम अध्याय में यह प्रतिपादन किया गया है। पूर्व वर्णित है कि पूजा काव्य के बाह्य निमित्त या आधार नौ देवता हैं - (1) अरहन्तदेव (2) सिद्धदेव (3) आचार्य देव, (4) उपाध्याय देव, ( 5 ) साधुदेव, (6) चैत्य (प्रतिमा) देव, ( 7 ) चैत्यालय (मन्दिर) देव, (8) धर्मदेव, ( 9 ) आगम ( शास्त्र) देव । इन नौ देवों में से 'रत्नत्रय' एक अन्तरंग निमित्त धर्म नामक देव है, जो आत्मा का स्वभाव है, अक्षय और कल्याणकारक है। उसकी पूजा व जैन काल में वि है इसी प्रलक्षणधर्म, सोलह भावनाधर्म, अहिंसा, स्याद्वाद, अपरिग्रह, सत्य आदि धर्मों की भी पूजा का विधान है जो जीवन में अत्यन्त उपयोगी साधन है। रत्नत्रय पूजा का प्रमाणश्री वर्धमानमानम्य, गौतमादश्च सद्गुरून् । रत्नत्रयविधिं वक्ष्ये यथाम्नायं विमुक्तये ।। ' सारांश = श्री महावीर तोर्थंकर को और गौतम (इन्द्रभूति) गणधर आदि गुरुओं को प्रणाम कर संसार से मुक्त होने के लिए परम्परा के अनुसार रत्नत्रय धर्म की पूजा को कहूँगा । रत्नत्रय दो प्रकार का होता है - ( 1 ) व्यवहार रत्नत्रय धर्म, ( 2 ) निश्चय रत्नत्रय धर्म । जो आत्मधर्मरूप, अक्षय एवं परम लक्ष्य रूप है वह 'निश्चयरलत्रय' है और जो निश्चयरत्नत्रय को प्राप्त करने का बाहरी साधन एवं क्रियाकाण्ड रूप है वह 'व्यवहाररत्नत्रय' कहा जाता है। निश्चयरत्नत्रय साध्य है और व्यवहाररत्नत्रय साधन है । एक भक्त व्यवहाररत्नत्रय की साधना का क्या रूप अपनाता है, संस्कृत पूजा में इसका प्रमाण सन्निश्चयश्चिदविदादिषु दर्शनं तत् जीवादितत्त्वं परमागमः प्रबोधः ! ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृ. 231 22 जैन पूजा-काव्य : एक चिन्तन
SR No.090200
Book TitleJain Pooja Kavya Ek Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayachandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages397
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size7 MB
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